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प्राचार्य कक्कमरि का जीवन ]
[ ओसवाल सं० ११२
१-नोकप्पई निग्गन्थीणं सागारिय अनिस्साए वत्थए २-नोकप्पई निग्गन्थीणं पुरिससागरिए उपस्सए बत्थए ३-कप्पइ निग्गन्थीणं पडिबद्धवाए सेजाए वत्थए बृहत् कल्प सूत्र पृष्ठ २
इन अवतरणों से पाया जाता है कि जिस दुकाल की भीषण मार के कारण जैन श्रमणों ने प्राम नगरों में रहने की शुरूआत की थी उस समय नगरों में साधुओं के लिए धर्मशारायें उपाश्रम बनाने का उपदेश भी नहीं देते थे । इसके लिए प्राचरांग सूत्र में सख्त मना है । यदि कोई गृहस्थ साधु के लिए मकान बना भी दे तो उप्त मकान में साधु को पैर रखने की भी मनाई है तो उपदेश देकर नया मकान बनाने की तो बात ही कहां रही ? यही कारण है कि साधुओं के लिए बनाये मकान में साधु ठहरे तो सावध क्रिया एवं घन क्रिया का विधान आचारांग सूत्र में बतलाया ।
जैन श्रमणों के लिए उपाश्रय का होना तो प्रायः सम्राट सम्प्रति के समय से ही पाया जाता है । जब सम्प्रति ने नये नये मन्दिरों का निर्माण कराया था तो उसके एक विभाग में श्रमणों के ठहरने को मकान भी पना दिये हों और साधुओं के लिये प्राम तौर से उपाश्रय एवं वसतिवास की शुरूआत तो आचार्य जिनेश्वर सूरि से ही होने लगी थी जिसका समय विक्रम की ग्यारवी शताब्दी का है।
प्राचार्य भद्रबाहु ने तीन छेद ग्रंथों के अलावे कई सूत्रों पर नियुक्तियों को भी रचना की थी जैसे आवश्यकसूत्र, दशवैकालिकसूत्र, उत्तराध्ययन सूत्र, श्राचाराँगसूत्र, सूत्रकृतांगसूत्र, सूर्यप्रज्ञप्तिसूत्र, ऋषिभाषितसूत्र, कल्पसूत्र, व्यवहारसूत्र और दशाश्रुतस्कन्द इनके अलावा उबसगाहरं स्तोत्रादि भी बनाये थे।
प्राचार्य भद्रबाहु स्वामी जैन धर्म के महान आचार्य हुये । आप जैनशासन में खूब ही विख्यात है। श्राप ४५ वर्प गृहवास १७ वर्ष सामानवत १४ वर्ष युग प्रधान एवं ४६ वर्ष की आयु पाल कर वीर निर्वाणात् १७० वर्षे देवगति को प्राप्त हुये +
प्राचार्य भद्रबाहु तक तो वीर-परम्परा में एक सौधर्मगच्छ ही चला आया था, पर श्राचार्य भद्रबाहु के चार शिष्य हुए उनसे पृथक २ गच्छ एवं शास्त्राए का निकलना प्रारम्भ हुआ ? जसे कि
श्राचार्य भद्रबाहु
गोदास अग्निदत्त जिनदत्त
सोमदत्त गोदास नामक शिष्य से 'गोदास' नाम का गच्छा निकला और इस 'गोदास नामक गच्छ की चार शाखा हुई, यथा-तामलित्तिया, कोडिवरिसिया, पोडबद्धणिया, दासीखाबड़िया, बस ! गच्छ और शाखा को श्रीगणेश यहाँ से ही होना शुरू हुआ है; हां इन गच्छों और शाखाओं के अन्दर तत्वभेद या क्रियाभेद नहीं था जैसे बारहवों शताब्दी के गच्छों में हुआ था। केवल अपनी गुरु-परम्परा के कारण ही इस प्रकार के गण और शाखाओं का प्रादुर्भाव हुआ था और आगे चल कर वे एक एक गण शाखाओं में मिल कर पुनः एक रूप में भी हो गये, अतः उनका अस्तित्व चिरकाल नहीं रह सका।
श्राचार्य यशोभद्रसूरि के पट्ट पर दो श्राचार्य हुए थे पर आगे चल कर प्राचार्य भद्रबाहु के बाद फिर स्थुनिभद्र नाम के एक ही आचार्य हुए, जिनका चरित्र आगे के पृष्ट में दिया जायगा।।
+ वीरमोक्षाद्वर्षशते सप्तत्यग्रेगतेसति । भद्रबाहुरपिस्वामीययौस्वर्ग समाधिना ॥ परिशिष्ट पर्वपृष्ट १०
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