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________________ आचार्य देवगुप्तहरि का जीवन ] [ औसवाल संवत् ११२ एक कोरंटगच्छ रूपी शाखा का जन्म हुआ था कनकप्रभसूरि के पट्टधर प्राचार्य सोमप्रभसूरि थे और आपके पट्टधर आचार्य नन्नप्रभसूरि हुए वे चन्द्रावती के आस पास बिहार करते थे उन्होंने सुना कि कोरंटपुर में आचार्य देवगुप्तसूरि का पधारना हुआ है तो वे भी अपने शिष्यों के परिवार से कोरंटपुर पधारे प्राचार्यदेवगुप्त सूरि अपने शिष्यों के साथ तथा कोरंटपुर का सकल श्रीसंघ सूरिजी के स्वागत के लिये सामने गये और बड़े ही धामधूम से नगर प्रवेश का महोत्सव किया जब व्याख्यान के समय दोनों आचार्य एक तख्तपर विराजमान हुए तो सूर्य और चन्द्र की भांति शोभ रहे थे जिनको देख श्रीसंघ बड़ा ही हर्षित हो रहा था । आहा हा पूर्व जमाने के आचार्यों की कैसी उदारता कितना वात्सल्यभाव और कैसा धर्म स्नेह इसका प्रभाव जनता पर कितना सुन्दर हो रहा था और इस एक दिली से वे शासन का कितना कार्य कर सकते थे उन दोनों के नाम मात्र के ही गच्छ नाम अलग थे पर अन्दर में वे सब एक ही थे और उन्हों का ध्येय एक शामन की उन्नति करने का ही था। दोनों आचार्य कई अर्से तक कोरंटपुर में रहे और जैनधर्म की विशेष वृद्धि एवं उन्नति के लिये कई योजनाएं तैयार की और दोनों ओर के मुनियों को प्रत्येक प्रत्येक प्रांत में बिहार करने की आज्ञाए दी और उन विनयवान मुनियों ने उन आज्ञाओं को शिरोधार्य कर कई कच्छ में कई पंचाल में तो कई सिंध प्रांत की ओर विहार कर जैनधर्म का प्रचार करने में लग गये। उस समय के आचार्य केवल अपनी जमात बढ़ने को ही गृहस्थों को दीक्षा नहीं देते थे पर उनकी लग्न जैनधर्म का सर्वत्र प्रचार करना करवाने की ही थी। कोरंटपुर से बिहार कर सूरिजी चन्द्रावती की ओर पधारे वहां का श्री संघ भी आपका खूब स्वागत किया। जिनवाणि के पीपासु मुमुक्षुओं को सूरिजी महाराज हमेशा धर्मोपदेश देकर उनको मोक्ष मार्ग की ओर खेचते थे कई नरनारियों ने सूरिजी के पास दीक्षा भी ली थी । ___ एक दिन सूरिजी ने पवित्र तीर्थ श्री शत्रुजय का वर्णन करते हुए कहा कि मोक्षमार्ग की साधना में तीर्थ यात्रा भी एक है । जिसमें भी तीर्थों का संघ निकाल चतुर्विध श्रीसंघ को यात्रा करवाना तो महान् लाभ का ही कारण है पूर्व जमाने में बड़े बड़े संघपतियों ने संघ निकाल यात्रा की है इस पुनीत कार्य से कई भव्यों ने तीर्थङ्कर गौत्र भी उपार्जन किये हैं इत्यादि । सूरिजी का प्रभावशाली व्याख्यान सुन कर वहां के संघ में एक जिनदेव नामक श्रद्धासम्पन्न श्रावक उसी व्याख्यान में खड़ा होकर प्रार्थना की कि सूरिजी महाराज के उपदेश से मेरी इच्छा है कि मैं श्री शत्रुञ्जयादितीर्थों की यात्रा के लिये संघ निकालं श्रीसंघ की ओर से मुझे आज्ञा मिलनी चाहिये उस समय और भी कई श्रद्धालुओं की भावना संघ निकालने की थी पर पहली प्रार्थना जिनदेव की थी अतः श्रीसंघ ने उनको ही आदेश दिया बस, फिर तो था ही क्या जिनदेव ने खुले दिल से द्रव्य द्वारा संघ की तैयारी करना प्रारम्भ कर दिया देश विदेश में आमन्त्रण पत्रिकाए भेजवादी आचार्य साधु साध्वियों को विनती की इत्यादि बस । दूर दूर से कई आचार्य एवं साधु साध्वियाँ विहार करके चन्द्रावती की ओर आने लग गये । ___इधर पंचाल की ओर विहार करने वाले आचार्य सिद्धसूरिजी महाराज गुरुवर्य देवगुप्तसूरि के दर्शनार्थ मरूधर में आ रहे थे उन्होंने सुना कि चन्द्रावती से तीर्थों का संघ निकलने वाले हैं और सूरिजी महाराज भी चन्द्रावती में विराजमान हैं अतः वे मी चल कर चन्द्रावती पधार गये। इस प्रकार चन्द्रावती में विशाल संख्या में संघ एकत्र हो गया सूरिजी महाराज का दिया हुआ शुभमुहूर्त फाल्गुण कृष्णा ७ को Jain Education International For Private & Personal Use Only 390 www.jandiary.org
SR No.003211
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages980
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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