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वि० पू० वर्ष २८८]
[ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास
जिनदेव के संघपतित्व में और आचार्य देवगुप्तसूरि के नायकत्व में संघ ने प्रस्थान कर दिया संघ में ५००० साधु साध्वियों और एक लक्ष भावुक गृहस्थ लोग थे ऐसा पट्टावलियों में लिखा हुआ मिलता है । संघ चलता हुश्रा प्रामोग्राम में पूजा प्रभावना स्वामि वात्सल्य ध्वजरोहण जीर्णोद्धार तथा नये मन्दिरों का निर्माण अभरी पहड़ा और गरीबों को सहायता करता हुआ क्रमशः तीर्थधिराज को नजर से देखते हुए ही हीग पन्ना माणक और मोतियों से बधाया जब संघ सिद्धाचल पहुंचा तो सबका दिल में दादा का दर्शन की उत्कण्ठा लगी हुई थी सूरिजी के साथ चतुर्विध श्रीसंघ ने दर्शन स्पर्शन कर अपना अहोभाग समझा । अहा हा-पूर्व जमाना में लोगों की धर्म पर कैसी अटल श्रद्धा थी जीवन भर में किये हुए पापों को एक यात्रा में भी धो डालते थे विशेषता यह थी कि वे लोग तीर्थों जा कर वापिस आते थे तो फिर पाप नहीं करते थे अर्थात् अपना जीवन साधु की मुवाफिक ही व्यतीत करते थे और ऐसा करने से ही यात्रा सफल और आत्मा का कल्याण होता है ।।
श्रीसंघ कई अ6 तक तीर्थ पर रहकर अनेक प्रकार से सुकृत्य कार्य कर लाभ उठाया । आचार्यदेव गुप्रसूरि की भावना तो यहा तक हो गई कि अब शेष जीवन तीर्थधिराज की शीतल छाया में ही गुजारना अच्छा है यह केवल भावना ही नही थी पर आप श्रीसंघ को कह भी दिया कि मेरी इच्छा अभी यहाँ ठहरने की है हाँ जिसकी इच्छा हो वह तीर्थ सेवा कर लाभ उठावे इत्यादि इस पर प्राचार्य सिद्धसूरि वगैरह बहुत से साधु साध्वियें तथा कई भावुक भक्त लोग भी वह ठहरगये और शेष संर वहाँ से रवाना होकर पुनः अपने स्थान पर आगये।
आचार्य देवगुप्तसूरि जब अपना अन्त समय नजदीक जाना तो चतुर्विध श्रीसंघ के समीक्ष अपने गच्छ का सर्व अधिकार आचार्य सिद्धसूरि को देकर उनको चतुर्विध श्रीसंघ का नायक बना दिया और आप सलेखना ( तपश्चर्य ) में सलग्न हो गये और अन्तमें २१ दिन का अनशन पूर्वक समाधि के साथ अन्तिम श्वासोश्वस और नाशमान शरीर का त्याग कर अक्षय तृत्तीय के दिन स्वर्ग सिद्धाय । उस समय श्रीसंघ के अन्दर बड़ाभारी रंज हुआ पर इस बात का उपाय भी तो क्या था । आखिर वहाँ उपस्थित आचार्य सिद्धसूरि आदि चतुर्विध श्रीसंघ ने परि निर्वाण काउस्सग्गदि क्रिया की ओर श्रीसंघ ने आप की स्मृति रूप आपका एक विशाल स्तूप भी वहाँ करवाया।
आचार्य देवगुप्तसूरि जैन शासन में एक महा प्रभाविक आचार्य हुए आप एक राजा के पुत्र आजीवन ब्रह्मचारी थे कच्छ सिन्ध पांचलादि क्षेत्रों में विहार कर लाखों मांस मदिरा आहारी जीवों की शुद्धि कर उन को जैन धर्म में दीक्षित किये कई मन्दिर मूर्तियों की आपने प्रतिष्टा करवाई कई नरनारियों को दीक्षा देकर उनका उद्धार किया सिद्धपुत्राचार्य जैले यज्ञ प्रचारक को प्रतिबोध कर सिद्धसूरि बनाये इत्यादि आपके उपकार के लिए जैन समाज सदैव के लिए ऋणी है पर इस लोहा की लेखने में इतनी शक्ति कहाँ है कि जिससे आचार्य श्री का सम्पूर्ण जीवन लिखा जाय तथापि कृतज्ञ मनुष्य का खास कर्तव्य है कि जहाँ तक हो सके वहाँ तक उपकारी पुरुषों का उपकार को सदैव स्मरण में रखे । और उनकी वन्दन भक्ति से कृतार्थ बने। बली होते की रक्षा करके सूरि जिसको बनाये थे, देतगुप्त पट्ट नव में होकर झण्डे खूब फहराये थे । कच्छ सोरठ लाट मरुधर पांचाल पावन कराया था, सिद्ध पुत्र को जीतबाद में अपना शिष्य बनाया था।
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