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आचार्य देवगुप्तसूरि का जीवन ]
[ ओसवाल संवत् ११२
७-भगवान महावीर के सातवें पट्ट पर-आचार्य स्थूलभद्रसूरि हुए आप बड़े ही प्रभावशाली थे आपका आदर्श जीवन अनुकरणीय था जैन साहित्य में तो क्या पर संसार भर का साहित्य में आपका श्रासन सर्वोपरि एवं अपूर्व समझा जाता है आपश्री के विषय में पाठक पिच्छले प्रकरणों में पढ़ आये हैं कि पटलीपुत्र नगर में नंदवंशी प्रथम नन्द-नन्दवर्धन राजा के कल्पक नाम का मंत्री था + और वह ब्राह्मण होने पर भी कट्टर जैनधर्मोपासक था आपकी सन्तान परम्परा में शकडाल नामक एक बड़ा भारी बुद्धिमान पुरुष पैदा हुआ वह भी अन्तिम नन्दवंशी राजा पद्मानन्द का मन्त्री था शकडाल मंत्री के स्थूलभद्र और श्रीयक नाम के दो पुत्र और यक्षादि सात पुत्रिये थी आप सकुटुम्ब जैनधर्म पालन करते थे मंत्री शकडाल ने अपने दोनों पुत्रों को और सातों पुत्रियों को विद्याध्ययन करवा कर विद्वान बना दिये थे जिसमें आपकी पुत्रियों ने तो पूर्व जन्म में इस प्रकार ज्ञान का क्षयोपशम किया था कि कोई भी गद्य एवं पद्य पहली पुत्री एक बार सुन लेने पर उसे कण्ठस्थ कर लेती थी एवं दूसरी दो बार तीसरी तीन बार यावत् सातवीं सात बार सुनने पर कोई भी ज्ञान हो शीघ्र ही कण्ठस्थ कर लेती थी अहा-हा उस जमाना में पिता अपने पुत्र पुत्रियों को विद्याध्ययन करवाने में किस प्रकार प्रयत्न करते थे जिसका यह एक ज्वलंत उदाहरण है।
मन्त्री शकडाल का बड़ा पुत्र स्थूलभद्र एक रूप लावण्य एवं युवति कैशा नाम की वैश्या का प्रेम में इस प्रकार फंस गया था कि बारह वर्षों में लाखों करोड़ों द्रव्य उसे दे दिया फिर भी वह उस वैश्या से पृथक् होना नहीं चाहता था यह भी एक पूर्व संचित मोहनीय कर्म का प्रबल्योदय ही कहा जा सकता है।
राजा नन्द की सभा में एक वररूची नाम का पण्डित आया करता था और वह अपने को शीघ्र +कल्पकः पुनरुत्पन्नानेक पुत्रो धियाँ निधिः । सुचिरं नन्दराजस्य मुद्रा व्यापार मन्वशात । १ । नन्दस्य वंशे कालेन नन्दाः सप्ताभवन्नृपाः । तेषां च मन्त्रणो ऽभूवन्भूयांसः कल्पकान्वयाः । २ । ततस्त्रिरखण्डं पृथिवी पतिः पतिरिव श्रियः । समुत्खात द्विपत्कन्दोनन्दोऽभून्नवमो नृपः। ३ । विशङ्कटः श्रियां वासोऽसङ्कटः शकटो धियाम् । शकटाल इति तस्य मन्व्य भत्कल्पकान्वयः । ४ । तस्य लक्ष्मीवतीनाम लक्ष्मीरिव व पुष्मती । सधर्मचारिण्य भवत्थीलालङ्कार धारिणी । ५ । तयोश्चज्येष्ठतनयो विनयालङ्कतोऽ भवत् । अस्थूलधीः स्थूलभद्रो भद्राकार निशाकरः। ६। भक्ति निष्ठः कनिष्ठोऽभूच्छीयकोनन्दनस्तयोः नन्दराहृदयामन्दानन्द गोशीर्षचन्दनः ।७। पुरेऽभत्तत्रकोशेतिवेश्यारूप श्रियोर्वशी। वशीकृतजगच्चेता बभूव जीवनौषधिः।८ । भुञ्जानोविविधान्भोगान्स्थूलभद्रोदिवानिशम् । उवासवसथे तस्याद्वादशा वब्दानि तन्मनाः । ९ । श्रीयकस्त्वङ्गरक्षोऽभूद्धरिविश्रम्भभाजनम् । द्वितीयमिवहृदयनन्दस्य पृथिवीपतेः । १० । तत्र चासीद्वररुचिर्नामद्विजवराग्रणीः । कवीनांवादिना वैयाकरणनांशिरोमणिः । ११ । स्वयंकृतैर्नव नवैरष्टोत्तरशतेनसः । वृत्तैः प्रवृत्तोऽनुदिनंनृपावलगने सुधीः । १२ । मिथ्यागिति तं मन्त्री प्रशशंस न जातुचित् । तुष्टोऽप्यस्मैतुष्टिदानं नददौ नृपतिस्ततः ।१३ । ज्ञात्वा वररुचिस्तत्रदानापापण कारणम् । आराधयीतुमारेभेगृहिणीं तस्य मन्त्रिणः । १४ ।
आगे वर रूची का विस्तार से सम्बन्ध लिखा है श्लोक ४८ तक है।
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