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वि० सं० ११५-१५७ वर्ष
[ भगवान् पाश्र्थनाथ की परम्परा का इतिहास
पल्लीवाल जाति इस जाति की उत्पति का मूल स्थान पाली शहर है जो मारवाड़ प्रान्त के अन्दर व्यापार का एक मुख्य नगर था इस जाति में दो तरह के पल्लीवाल है १.-वैश्य पल्लीवाल,२-ब्राह्मण पल्लीवाल और इस प्रकार नगरके नाम से औरभी अनेक जाति पैदा हुई थी जैसे श्रीमाल नगर से श्रीमाल जाति,खंडे ला शहर से खंडेलवाल, महेश्वरी नगरी से महेश्वरी जाति, उपकेशपुर से उपकेश जाति, कोरट नगर से कोरटवाल जाति,
और सिरोही नगर से सिरोहिया जाति इत्यादि नगरों के नाम से अनेक जातियों उत्पन्न हुई थी इसी प्रकार पाली नगर से पल्लीवाल जाति की उत्पत्ति हुई है वैश्यों के साथ ब्राह्मणों का भी सम्बन्ध था कारण ब्राह्मणों की श्राजीविका वैश्यों पर ही थी अतः जहाँ यजमान जाते हैं वहां उनके गुरु ब्राह्मण भी जाया करते हैं जैसे श्रीमाल नगर के वैश्य लोग श्रीमाल नगर का त्यागकर उपकेशपुर में जा बसे तो श्रीमाल नगर के ब्राह्मण भी उनके पीछे चले आये अतः श्रीमाल नगर से आये हुए वैश्य श्रीमाल वैश्य और ब्राह्मण श्रीमाल ब्राह्मण कहलाये इसी प्रकार पाली के वैश्य और ब्राह्मण पाली के नाम पर पल्लीवाल वैश्य ओर पल्लीवाल ब्राह्मण कहलाये ।
जिस समय का मैं हाल लिख रहा हूँ वह जमाना किया कण्ड का था और ब्राह्मण लोगों ने ऐसे विधि विधान रचडाले थे कि थोड़ी-थोड़ी बातों में क्रिया काण्ड की आवश्यकता रहती थी और वह क्रियाकाण्ड भी जिसके यजमान होते वे ब्राह्मण ही करवाये करते थे उसमें दूसर। ब्राह्मण हस्तक्षेप नहीं कर सकता था अतः वे ब्राह्मण अपनी मनमानी करने में स्वतंत्र एवं निरांकुश थे एक वंशावली में लिखा हुआ मिलता हैं कि पल्लीवाल वैश्य एक वर्ष में पल्लीवाल ब्राह्मणों को १४०० लीकी और १४०० टके दिया करते थे तथा श्रीमाल वैश्यों को भी इसी प्रकार टेक्स देना पड़ता था, पंचशतीशाषोड़शाधिका' अर्थात ५१६ टका लाग दापा के देने पड़ते हैं । भूदेवों ने ज्यों-ज्यों लाग दापा रूपी टेक्स बढ़ाया त्यों-त्यों यजमानों की अरूची बढ़ती गई। यही कारण था कि उपकेशपुर का मंत्री बहड़ ने म्लेच्छों की सेना लाकर श्रीमाली ब्राह्मणों का पिच्छा छुड़वाया इतना ही क्यों बल्कि दूसरे ब्राह्मणों का भी जोर जुल्म बहुत कम पड़गया। क्योंकि ब्राह्मण लोग भी समा गये कि अधिक करने से श्रीमाली ब्राह्मणों की भांति यजमानों का सम्बन्ध टूट जायगा जो कि उनपर ब्राह्मणों की आजीविका का आधार था अतः पल्लीवालादि ब्राह्मणों का उनके यजमानों के साथ सम्बन्ध ज्यों का त्यों बना रहा था मंत्री ऊहड़ की घटना का समय वि० स० ४०० पूर्व का था यही समय पल्लीवाल जाति का समझना चाहिये । खास कर तो जैनाचार्यों का मरुधर भूमि में प्रवेश हुआ और उन्होंने दुर्व्यसन सेवित जनता को जैनधर्म में दीक्षित करना प्रारम्भ किया तब से ही उन नास्तिकों के तथा स्वार्थ प्रिय ब्राह्मणों के आसन कांपने लग गये थे, और उन क्षत्रियों एवं वैश्यों में से जैन धर्म स्वीकार करने वाले अलग होगये तब से ही जातियों की उत्पति होनी शुरू हुई थी इसका समय विक्रम पूर्व चारसौ वर्षों के पास पास का था, और यह क्रमशः विक्रम की आठवीं नौवीं शताब्दी तक चलता ही रहा तथा इन मूल जातियों के अन्दर शाखा प्रतिशाखा तो वट वृक्ष की भांति निकलती ही गई जब इन जातियों का विस्तार सर्वत्र फेल गया तब नये जैन बनाने वालों की अलग जासियाँ नहीं बना कर पूर्व जातियों के शामिल करते गये जिसमें भी अधिक उदारता उपकेश वंश की ही थी कि नये जैन बनाकर प्रायः उपकेश वंश में ही मिलाते गये, जिसको हम आगे चल कर यथा समय लिखेंगे।
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[ भगवान महावीर की परम्परा
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