________________
ओसवाल जाति की ऐतिहासिकता ]
[वि० पू० ४०० वर्षे
वाचनाचार्य ४ गुरु ( आचार्य ), प्रवर्तक, २ महत्तर ( पदविशेष ) १२ प्रवर्तनी, महत्तरिका इत्यादि सबको शामिल मिला कर गच्छ मर्यादा बांध दी कि इस चंद्रकुल में आज से यदि किसी को दीक्षा दी जाय अथवा श्रावक को समकित या व्रत उच्चाराया जाय उस समय वासक्षेप दिया जाता है उस समय कोटिक गण वजीशाखा और चंद्रकुल के नाम लिये जायंगे इत्यादि । यह मर्यादा चंद्रकुल की परम्परा में अद्यावधि विद्यमान है।
इस प्रमाण से यह बात स्पष्ट सिद्ध हो जाती है कि विक्रम की दूसरी शताब्दी में उपकेशगच्छ के अन्दर बड़े २ विद्वान् मुनि और यक्षदेवसूरि सरीखे पूर्वधर श्राचार्य विद्यमान थे, इससे अधिक प्रमाण क्या हो सकता है।
इस विषय में आचार्य विजयानन्द सूरीश्वरजी अपने जैनधर्म विषयक प्रश्नोत्तर नामक ग्रंथ के पृष्ठ ७७ पर प्राचार्य यक्षदेवसूरि द्वारा चंद्रादिक चार कुलों की थापना होना बतलाया है जो इसी निबन्ध में आप श्री के किये हुये प्रश्नोत्तरों को ज्यों के त्यों उद्धृत कर दिया जायगा ।
३ कोरंटगच्छीय पट्टावली आदि ग्रन्थ
वीर निर्वाणात् ७० वें वर्षे प्राचार्यरत्नप्रभसूरि उपकेशपुर नगर में श्राव्या ! उठे आहार पाणी रों जोग नहीं मिल्यो तरे कनकप्रभादि ४६५ साधु विहार करने कोरंटपुर में चौमासो किधो । ज्यारे मुनिवर ना उपदेश सुं कोरंटपुर में महावीरजी रो एक मन्दिर बणायो । उठीने रत्नप्रभसूरि ने उपकेशपुर का राजा उपलदेव तथा मंत्रीऊहड़ और सवालक्ष राजपतों ने जैनधर्म के श्रावक बनाया और मंत्रीऊहड़ ने महावारस्वामी रो मन्दिर बनायो उण वख्त कोरंटपुर का संघ रत्नप्रभसूरि री विनती करणने उपकेशपुर गयो तरे रत्नप्रभसूरि कह्यो के अठे पण महावीरजी रा मन्दिर री प्रतिष्ठा करवाणी है जिणरो मुहुर्त माघ शुद्ध ५ रो है ने थारों उठारा मन्दिर को मुहुत पण माघ शुद्ध ५ को है । पण संघरा आने से रत्नप्रभसूरि हामल भरी । पछे मुहूर्त पर दोय रूप बना कर एक सुं उपकेशपुर दूसरा से कोरंटपुर में प्रतिष्ठा कराई तिके दोनोंई मन्दिर आज सुधी ऊभा छे इत्यादि ।
कोरंटपुर की हस्तलिखित पट्टावली पन्ना ३ आचार्य विजयानन्दसूरिजी महाराज फर्माते हैं कि :
तथा अयरणपुर की छावनी से ६ कोस के लगभग कोरंट नाम नगर उज्जड़ पड़ा है जिस जगा कोरंटानामें आज के काल में गाँव बसता है तहां भी श्री महावीरजी की प्रतिमा मन्दिर की श्री रत्नप्रभसूरिजी की प्रतिष्ठा करी हुई अब विद्यमान काल में सो मन्दिर खडा है । जैनधर्म विषयक प्रश्नोत्तर नामक ग्रन्थ पृष्ठ८१'
कोरंटगच्छ के विषय तो पाठक प्राचार्यरत्नप्रभसूरि के जीवन में पढ़ आये हैं कि कोरंटगन्छ की उत्पत्ति कोरंटपुर में आचार्यकनकप्रभसूरि से ही हुई है जिसकी प्रमाणिकता के लिए 'प्रभाधिक चरित्र' में एक देवचन्द्रोपाध्याय का उदाहरण मिलता है कि विक्रम की दूसरी शताब्दी में कोरंटपुर के महावीर मन्दिर में देवचन्द्रोपाध्याय रहता था जिसको सर्वदेवसूरि ने चैत्यवास छुड़ा कर उप विहारी बनाया इत्यादि । जैसे किः
तत्र कोरंटकं नाम पुर मस्त्युन्नता श्रयम् । द्विजिह्व विमुखायत्र विनता नन्दना जनाः ॥ तत्राऽस्ति श्री महावीर चैत्यं चैत्यं दधद् दृढ़म । कैलाश शैलबद्भाति सर्वाश्रय तयाऽनया॥ उपाध्यायोऽस्ति तत्र श्रीदेवचन्द्र इति श्रतः । विद्ववृन्द शिरोरत्न तमस्ततिहारो जनैः ॥
Jain Education Internal
For Private & Personal Use Only
www.984 pary.org