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वि० पू० ४०० वर्ष]
[ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास
पट्टावली समुचय पृष्ट १८९
२-नागेन्द्रसूरि से नागेन्द्रकुल-जिसमें उदयप्रभसूरि मल्लिसैनसूरि आदि कई महाप्रभाविक आचार्य हुए जिन्होंने लाखों अजैनों को जैन बना कर जैन संख्या की वृद्धि की!
३-निवृत्तिसूरि से निर्वृत्ति कुल-जिसमें शेलांगाचार्य; द्रोणाचार्य, सूराचार्य गर्गाचार्य आदि धुरन्धर आचार्य हुए निनके चरणकमलों में अनेक भूपति सिर झुकाते थे।
४-विद्याधरसूरि से विद्याधरकुल-जिसमें १४४४ प्रन्थों के रचयिता आचार्य हरिभद्रसूरिआदि महाप्रभाविक आचार्य हुए । जो जैन जैनेत्तर लोगों में खूब मशहूर हैं।
इस विषय का उल्लेख उपकेशगच्छपट्टावली में इस प्रकार मिलता है । ___"एवं अनुक्रमेण श्रीवीरात ५८५ वर्षे श्रीयक्षदेवसरिर्बभूव महाप्रभावकर्ता, द्वादशवर्षीय दुर्भिक्षमध्ये वनस्वामी शिष्य वज्रसेनस्य गुरौ परलोक प्राप्ते यक्षदेवसरिणा चतस्रः शाखाः स्थापिता "इत्यादि।"
भावार्थ-श्रीवीर के निर्वाणकाल से ५८५ वर्ष बीतने पर महाप्रभाविक श्रीयक्षदेवसूरि प्राचार्य हुये। इस समय दुर्दैववश १२ वर्ष का अकाल पड़ने पर वजूस्वामी के शिष्य श्री वज्रसेनसूरि के परलोक प्रयाण करने पर श्रीयक्षदेवसुरि ने चार शाखायें स्थापित की जिसका वर्णन ऊपर लिखा जा चुका है।
इनके अलावा उपकेशगच्छ चरित्र में भी इस विषय का उल्लेख मिलता है। तदन्वये यक्षदेवसरिरासीद्धियां निधिः । दशपूर्वधरोवज्रस्वामीभुव्यभवद्यदा ॥ दुर्भिक्षे द्वादशाब्दीये, जनसंहारकारिणी । वर्तमानेऽनाशकेन, स्वर्गेऽगुबहुसाधवः ॥ ततो व्यतीते दुर्भिक्षेऽवशिष्टान् मिलितान् मुनीन् । अमेलयन्यक्षदेवा, चार्याचन्द्रगणे तथा॥ तदादि चन्द्रगच्छस्य, शिष्य प्रव्राजनाविधौ । श्राद्धानाँ वास निक्षेपे, चन्द्रगच्छः प्रकीय॑ते ।। गणः कोटिक नामापि, वज्रशाखाऽपिसंमता । चान्द्रं कुलं च गच्छेऽस्मिन, साम्प्रतं कथ्यते ततः।। शतानि पंच साधूना, पुनगच्छेऽपिमिलनिह । शतानि सप्त साध्वीना,तथोपाध्याय सप्तकम् ॥ दशद्वौवाचनाचार्या, श्चत्वारो गुरवस्तथा । प्रवर्तकौ द्वावभूताँ, तथैवोभे महत्तरे ॥ द्वादशस्युः प्रवर्त्तिन्यः; सुमीति द्वौ महत्तरौ । मिलितौ चन्द्रगच्छान्तः सङ्खयेयं कथ्यते गणे॥
___ "उपकेशगच्छ चरित्र अर्थ-दशपूर्वधर श्राचार्य वज्रसूरि के सदृश अनेक गुणनिधि आचार्य यक्षदेवसूरि भूमण्डल पर विहार करते थे, उस समय बारह वर्षीय जनसंहार करने वाला भीषण दुष्काल पड़ा था । जब धनिक लोगों के लिए मोतियों के बराबर ज्वार के दाने मिलने मुश्किल हो गये थे तो साधुओं के लिए भिक्षा का कहना ही क्या था ? यदि कहीं मिल भी जाय तो सुख से खाने कौन देता ? उस भयंकर दुकाल में यदि कोई व्यक्ति अपने घर से भोजन कर तत्काल ही बाहर निकल जावे तो भिक्षक उसका उदर चीर कर अन्दर से भोजन निकाल कर खा जाते थे । इस हालत में कितने ही जैनमुनि अनशनपूर्वक स्वर्ग को चले गये । शेष रहे हुए मुनियों ने ज्यों-त्यों कर उस दुष्काल रूपी अटवी का उल्लंघन किया। जब वज्रसूरि के पट्टधर वनसैन के निमित्त ज्ञान से अकाल के बाद सुकाल हुआ तो आचार्य यक्षदेवसूरि (चन्द्रादि चार मुनियों को पढ़ाने वाले ) ने रहे हुए साधुओं को एकत्र किये तो ५०० साधु, ७०. साध्वियां, ७ उपाध्याय, १२
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