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पोजन तक रोगादि भय न हो २-ज्ञानातिशय केवल ज्ञान द्वारा लोकालोक के भावों को जाने ३-पूजातिशय प्रमु, प्राणी मात्र के पूजनीक हैं ४--वचनातिशय प्रभु की देशना देव मनुष्य तियेच सर्व अपनी-अपनी भाषा में समझ कर बोध को प्राप्ती हो ।इत्यादि तीर्थङ्करों के अनन्त अतिशय होते हैं।
१४-तीर्थकरदेव की वाणि के ३५ गुण होते हैं जैसे १-संस्कृतादि लक्षण युक्त हो २-मेघ जैसी गंभीर हो २-प्रामणि तुच्छ भाषा मुक्त हो ४-उच्च स्वभाव युक्त हो ५-प्रत्येक शब्द स्पष्ट सुन सके ६विक्रता दोष रहित सरल हो ७-माल कोषादि गग सहित हो ८-महान अर्थ वाली हो ९-पूर्वापर
विरोध वाली हो १०-संदेह रहित ११-शिष्ट पुरुषों की सूचना करवाने वाली हो १२-देश कालानुसारणी हो १३-पर दोषों को प्रकट न करने वाली हो १४-श्रोताओं के हृदय को आनन्द देने वाली. हो १५-परस्पर पद एवं वाक्यानुसारणी हो १५-प्रति पाद्य विषय पर उलंघन न करे १५-अमृत से भी अधिक मधुर हो १८-स्वप्रशंसा और परनिंदा मुक्त हो १९--अच्छा सम्बन्ध और अक्षर पद वाक्य स्पष्ट जानने वाली हो २०-सत्व प्रधान और साहस युक्त हो २१-कारक, काल, पचन और लिंग वाली हो २२-अखंडनिय विषय वाली हो २३-प्रतिपाद्य अर्थ विशेष की साधने वाली हो २४-अनेक वस्तु समुदाय का विचित्र वर्णन करने वाली हो २५-दूसरों का मर्म प्रकाश करने वाली न हो १६-विभ्रमादि दोष रहित हो २७-विलम्ब रहित हो २८-वक्ता की अनुपम शक्ति प्रगट करने वाली हो २९-सुनने वाले को खेद न हो ३०-उत्सुकता मुक्त हो ३१-धर्मार्थरूप पुरुषार्थ को पुष्टि करने वाली हो ३२-सब लोग प्रशंसा करने योग्य हों ३३-अद्भूत अर्थ रचना वाली हो ३४--सापेक्षा वाली हो ३५-अद्भुत आश्चर्य पैदा करने वाली हो इत्यादि ।
१४-तीर्थक्कर देव के अष्ट महाप्रतिहार्य होते हैं जैसे कि १-तीर्थङ्करों के शरीर से बारह गुना ऊंचा अलंकृत अशोक वृक्ष २-पांच प्रकार के सुगन्धी पुष्पों की वर्षा ३-आकाशमें दिव्य ध्वनि ४-श्वेत चामर ५---सुवर्ण रत्नजित मय सिंहासन ६-भामण्डल प्रकाशवाला ७---देव दुन्दुभि ८-तीनछत्र एवं आठ महा प्रतिहार्य सर्व तीर्थङ्करों के होते हैं।
१५-महाविदह क्षेत्र में वर्तमान समय २० तीर्थङ्कर विद्यमान है जिन्हों का वर्णन ऊपर कोष्ठक में दिया है इनके सिवाय, कई सबके लिये समान बातें हैं, वह यहाँ लिख दी जाती है । वीस तीर्थङ्करों के स्थान क्रमशः ४ जम्बुद्वीप का सुदर्शन मेरू,चार पूर्व धातकी खण्ड का विजयमेरू,चार पश्चिमी घातकीखण्ड ! का अचलमेरू, चार पूर्व पुष्करार्द्ध का पुष्कर मन्दिर मेरू,चार पश्चिम पुष्करार्द्धका विद्यन्माली मेरू। प्रत्येक मेरुकी ३२ विजयों से ८-९-२४-२५ वीं विजय में तीर्थङ्कर होते हैं जिन्हों के नाम-पुष्कलावती, पच्छा, निलीनावती और विप्रा है। नगरियों के नाम कोष्टक में दिये हैं। सब तीर्थकरों का जन्मादि समकालीन ही होते हैं । श्रावणवद १ को च्यवन, वैशाख बद १० को जन्म, फाल्गुण शुद्ध ३ को दीक्षा, चैत्र शुद्धि १३ को केवल ज्ञान-चौतीस अतिशय, पैतीस गिरा गुण, अष्ट महाप्रतिहार्य, समबसरण की रचना करोड़ीदेव सेवा में रहना, पांच पांच कल्याण क इन्द्रादि देवों द्वारा किया जाना, देहमान ५०० धनुष्य कांचन वर्णी काया ८४ लक्ष पूर्वायुष्य, ८३ लक्ष पूर्व गृहवास, एक लक्ष पूर्व दीक्षा, १००० वर्ष छमस्थ, ८४ गणधर, दसलक्ष केवली,सौ करोड़ साधु साध्वी। जिस विजय में तीर्थकर जन्म लेते है, रसी विजय में मोक्ष पधारते है, दूसरी विजय में भी साधु सान्वी एवं केवली होते हैं । धन्य है महाविदह के मनुष्यों को कि वे सदैव चतुर्थ श्रारा सरश काल में रहते हुए तीर्थङ्कर देव का व्याख्यान सुन सेवा भक्ति करते हैं । महाविदह क्षेत्रके तीर्थकर वहाँ के लोगों को घहते हैं कि धन्य है भरत क्षेत्र के धर्मी मनुष्यों को क्योंकि वहाँ तीर्थङ्कर, केवली,मनः पर्यव, अवधि, पूर्वधर न होने पर भी वे बिना धणी झुंज रहे हैं तथा महाविदहक्षेत्र में यह गाली दी जाती है कि जाओ भरत क्षेत्र में बह धनी और बहु परिवार वाला होना । जय बोलो श्री तीर्थकर देव की ॥ ३ ॥
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