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वे० सं० ११५-१५७ वर्ष ]
[ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास
नके अलावा सौदागर लोग अपनी बालद एवं पोटों पर लाद कर बड़ी-बड़ी कतारों द्वारा लाखों रुपयों का ल लाते और ले जाते थे । अतः पाली व्यापार का एक केन्द्र था---
इत्यादि इस उल्लेख से स्पष्ट पाया जाता है कि मारवाड़ में पाली एक व्यापार का मथक और चीन नगर था और वहां पर महाजन संघ एवं व्यापारियों की घनी बरती थी ।
पल्लीवाल जाति में जैनधर्म - यह निश्चयात्मिक नहीं कहा जा सकता है कि पल्लीवाल जाति जैनधर्म का पालन करना किस समय से शुरू हुआ पर पहलीवाल जाति बहुत प्राचीन समय से जैनधर्म गलन करती आई हैं पुराणी पट्टावलियों वंशावलियों को देखने से ज्ञात होता है पल्लीवाल जाति विक्रम के चार सौ वर्ष पूर्व से ही जैनधर्म प्रवेश हो चूका था। इस की साबूती के लिये यह कहा जा सकता है कि आचार्य स्वयंसूर ने श्रीमाल नगर में ९०,००० घरों वालों को तथा पद्ममाती नगरी के ४५००० घरों के लोगों को जैनधर्म की शिक्षा दीक्षा देकर जैन बनाये थे बाद आचार्य रत्नप्रभसूरि ने उपकेशपुर नगर में लाखों त्रियादि लोगों को जैनधर्म की दीक्षा दी और बाद में भी श्राचार्यश्री गरूधर प्रान्त में बड़े-बड़े नगरों से छोटे छोटे प्रामों में भ्रमन कर अपनी जिन्दगी में करीब चौदह लक्ष घर वालों को जैनी बनाये थे जब पाली राह श्रीमालनगर और उपकेशपुर नगर के बीच में श्राया हुआ है भला वह आचार्यश्री के उपदेश से कैसे वंचित रह गया हो अर्थात् पाली नगर में श्राचार्यश्री अवश्य पधारे और वहां की जनता को जैनधर्म में अवश्य दीक्षित किये होंगे। हां उस समय पल्लीवाल नामकी उत्पत्ति नहीं हुई होगी पर पालीवासियों को आचार्यश्री ने जैन श्रवश्य बनाये थे । आगे चलकर हम देखते हैं कि श्राचार्य सिद्धसूरि पाली नगर में पधारते हैं और वहाँ के श्रीसंघ ने श्राचार्यश्री की अध्यक्षत्व में एक श्रमण सभा का आयोजन करते हैं। जिसमें दूर दूर से हजारों साधु साध्वियों का शुभागमन हुआ था इस पर हम विचार कर सकते हैं कि उस समय पाली नगर में जैनियों की खूब गेहरी आबादी होगी तब ही तो इस प्रकार का वृहद् कार्य पाली नगर में हुआ था इस घटना का समय उपकेशपुर आचार्य रत्नप्रभसूरि ने महाजन संघ की स्थापना करने के पश्चात् दूसरी शताब्दी का बतलाया है इससे स्पष्ट पाया जाता है कि श्राचार्य रत्नप्रभसूरि ने पाली की जनता को जैनधर्म में दीक्षित कर जैनधर्मोपासक बनादी थी उस समय के बाद तो कइ भावुकों ने जैनमन्दिर बनाकर प्रतिष्ठा करवाई तथा कई श्रद्धा सम्पन्न श्रावकों ने पाली से शत्रु जयादि तीर्थों के संघ भी निकाले थे जिसका उल्लेख हम यथा स्थान इसी ग्रन्थ में करेंगे । इत्यादि प्रमाणों से हम इस निर्णय पर श्रासकते हैं कि पाली की जनता में जैनधर्म श्रीमाल और उपकेशवंश के समयसामयिक प्रवेश हो गया था इतना दी क्यों पर पालीवालों का पल्लीवाल नाम संस्करण होने के पूर्व ही वे जैनी बन चुके थे बाद पाली के लोग व्यापारार्थ एवं किसी कारण से पाली छोड़कर अन्य स्थानों में जा बसने से वे पाली वाले कहलाये और बाद पालीवालों का अपभ्रंश पल्लीवाल बन गया था जैसे अन्य नगरों के नाम से जातियां बनी हैं।
जैनशासन में साधुत्रों की बहुतता एवं जिस ग्राम नगर की ओर विशेष विहार करने के कारण उन ग्राम नगरों के नाम से गच्छ कहलाया जैसे उपकेशपुर के नाम पर उपकेशगच्छ, कोरंट नगर के नाम से कोरंट गच्छ, वाटनगर से पायटगच्छ, हर्षपुरा से हर्षपुरागच्छ, कुर्बपुर नगर से कुर्धपुरागच्छ, कसहद से कसहदगच्छ, नाणाग्राम से नारणावालगच्छ, सांढेराग्राम से सांढेरागच्छ, इत्यादि बहुत से गच्छों का प्रादुर्भाव
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[ भगवान् महावीर की परम्परा
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