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________________ ओसवाल जाति की ऐतिहासिकता ] [ वि० पू० ४०० वर्षे ३०-वि० स० ३०२ रूणी ग्राम में आचार्य रत्नप्रभसूरि के उपदेश से प्राग्वट वंशीय शा० देदा करमण ने श्री शत्रुजय का संघ निकाला, यज्ञ करके साधी भाइयों को सोना मोहर और वस्त्रादि की पहिरामणी दी। इस दानवीर ने शुभ कार्यों में तीन लक्ष द्रव्य व्यय किया। ३१-वि० स० ४६६ में आचार्य कक्कसूरि के उपदेश से कोटियाला ग्राम में श्रीमालवंशीय सुरजण पुनड़ ने अपनी लाखों रुपयों की मिल कियत सात क्षेत्र में खर्च कर सकुटुम्ब पचास नर नारियों के साथ सूरिजी महाराज के पास दीक्षा ली जिससे जैनधर्म की खूब प्रभावना हुई। ३२-वि० सं० ५९२ में प्राचार्य कक्कसूरि के उपदेश से हथियाण ग्राम में प्राग्वटवंशीय कल्हण करमण ने भगवान पार्श्वनाथ का मंदिर बना कर सुवर्णमय मूर्ति की प्रतिष्ठा प्राचार्य कक्कसूरि से करवाई । ३३-वि० स० ५११ में आचार्य देवगुप्तसूरि के उपदेश से चंद्रावती के मंत्री सारंगदेव ने श्री शत्रुजयादि तीर्थो का बड़ा भारी संघ निकाला तथा चंद्रावती में भगवान महावीर का मंदिर बनाया जिसकी प्रतिष्ठा कक्कसूरि ने कराई । मंत्रेश्वर ने न्यायोपार्जन द्रव्य को शुभ काम में लगाया । ३४-वि० सं० २१६ में आचार्य रत्नप्रभसूरि के उपदेश से शिवपुरी के मंत्री बनवीर के पुत्र सलखण ने ४७ नर नारियों के साथ सुरिजी के पास दीक्षा ली जिसके महोत्सव में मंत्रीश्वर ने सवालक्ष द्रव्य खर्च करके जैनधर्म का उद्योत किया। इत्यादि यह तो केवल नमूने के तौर पर थोड़े से प्रमाण लिखे हैं पर इस प्रकार के प्रमाणों से वंशावलियां भरी पड़ी हैं और यह ग्रन्थ ही इन भंडारों में पड़ी बातों को प्रसिद्ध करने की गरज से निर्माण किया जा रहा है । अतः यथास्थान एन वीरों के धर्म का प्रकाशित किये जायंगे। पाठकों को उपरोक्त कार्य्य पढ़ कर आश्चर्य होगा कि एक एक कार्य में वे धर्मज्ञ लोग लाखों रुपये खर्च कर देते थे तो उनके पास कितना द्रव्य होगा या वे इतना द्रव्य कहां से लाते होंगे ? हाँ, आजकल के पचीस पचास एवं सौ रुपये माहवारी पर नौकरी करने वाले या भूठ कपट से व्यापार करने वालों को यह आश्चर्य होना स्वाभाविक ही है । पर उन लोगों ने न तो कभी नौकरी की थी और न व्यापार में कभी झूठ ही बोला था । उनका सब कार्य एवं व्यापार हमेशा न्यायपूर्वक औ सत्यता से ही होता था । दूसरों का बिना हक़ एक छदाम लेना भी वे हराम समझते थे अतः न्याय और सत्य से वे लोग द्रव्यो पार्जन करते थे और उसको इस प्रकार शुभ कार्यों में लगाते थे। वह जमाना तो बहुत दूर का है पर आप आज अमेरिकादि पाश्चात्य देशों को देखिये उनके पास कितनी लक्ष्मी है और अपने धर्मप्रचार के लिये किस प्रकार करोड़ों द्रव्य व्यय करते हैं, तो फिर उस जमाने के लिये कौनसी आश्चर्य की बात है। जिस जमाने के मैंने ऊपर प्रमाण दिये हैं उस जमाने में धर्म कार्यो में मुख्य कार्य मंदिर मूर्तियों की प्रतिष्टा करवाना, तीर्थों की यात्रार्थ बड़े बड़े संघ निकाल कर हजारों लाखों साधर्मी भाइयों को यात्रा करवाना और उन साधर्मी भाइयों को वस्त्राभूषण एवं सोने मोहरादि की पहिरामणी देना, साधर्मीभाइयों की सहायता करना, आचार्यों का पट्टमहोत्सव करना, अपने घर से महोत्सव कर भगवत्यादि बड़े सूत्र बंचाना उजमना वगैरह करना और दुकालादि में अन्न घास देकर प्राण बचाना इत्यादि । बस, इन शुभ कार्यों से ही उनका पुन्य बढ़ता था और जहाँ पुन्य है वहाँ लक्ष्मी बिना बुलाये ही आकर डेरा डाल देती है । roman.xmuvwarnimirmiriwn in Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003211
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages980
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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