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________________ वि० ० पू० ४०० [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास २३ - मोरख गोत्र वि० सं० ६५८ में शा० रत्नो जोगीदासादि बड़े ही उदार दानेश्वरी हुये। दुकाल में गरीबों और पशुओं को अन्न घास देकर नाम कमाया । श्रापकी वंश परम्परा में एक नाथाशाह नामका पुरुष पुष्कर में रहता था ! उस पर गुरु महाराज की पूर्ण कृपा थी या पूर्वभव के पुन्य से उसके घर में लक्ष्मी सूट हो गई थी । वि० सं० ७२२ में एक दुकाल पड़ा था । वह महाभयंकर जनसंहारक था उसमें शा० नाथा ने विणजारों द्वारा जहां जिस भाव में मिला धान और घास मंगवा कर दुकाल को सुकाल बना दिया इसकी कीर्ति के कई वंशावलियों में कवित्त भी मिलते हैं जैसे कि 1 वर्ष 1 कांते आया रे दुकाल तू नाथा के दरबार में मिलेगा न मान तोकू जा जा देश पार में || कुत कोरा दोरा लगत हुन पिच्छोरा तौर में । अनाथ सनाथ भयो नाथो उगत ही भौर में ॥ २४ - वि० सं० १०१९ में आचार्य सिद्धसूरि ने राष्ट्रकूट वंशीय राव सुखा को प्रतिबोध कर जैन श्रावक बनाया । जिसकी छुट्टी पुस्तक में गोसल धनराज नाम के दो नामी पुरुष हुए । सुखो सुप्रसिद्ध नयर मोखीणो अवचल | केसीपुर पोकरणी साख सुखा सुनिश्चल || तस सुत गोसल कल्पवृक्ष अवचल जग छाजै । खीमडीयोगढ़ कउरसिंह जुडील वल गाजै ॥ पीथड़ सिखरों प्रगट नर सुकवि गल्ह समुचरे । पुविला सयण खीवस जसो धनराज सहु उदरे || २५ - भूरिगोत्र - भटेवरा शाखा के शाह नानग वीरमदेव ने वि० सं ४९७ अछूपत्तानगरी में पार्श्वनाथ का देहरा कराया प्र० उपकेशगच्छीय श्राचार्य देवगुप्त सूरि ने करवाई । २६ - - पद्मावती नगरी में प्राग्वट नरसिंह चतुर्भुज ने वि०सं० ३३५ में आचार्य यक्षदेवसूरि के उपदेश से नव लक्ष द्रव्य सात क्षेत्र में व्यय कर बाप बेटे ने श्राचार्य श्री के पास दीक्षा लीनी । २७ - वि० सं०० ४०९ में चन्द्रावती नगरी में प्राग्वट लालन पाताजी ने भगवान महावीर का मंदिर बना कर श्राचार्य रत्नप्रभसूरि से प्रतिष्ठा करवाई। इस शुभ कार्य में एक लक्ष रुपये खर्च किये । भाइयों को हिरामणी दी सात बड़े यज्ञ (जीमणवार) किये । २८--वि० स ं० २७९ में कोरंटपुर में श्रीमाल सावंतसी खेतसी ने आचार्य देवगुप्त सूरि के उपदेश से सम्मेतशिखरजी आदि तीर्थों का बड़ा भारी संघ निकाला । सब तीर्थों की यात्रा की, तीन बड़े यज्ञ (जीमणवार) किये, साधर्मी भाइयों को पहिरामणी दी । इस शुभ कार्य में आपने नौ लक्ष द्रव्य व्यय किया । २९- पिलाणी ग्राम में श्रीमाल चन्द्रभाग कल्याणजी ने वि० सं० २३५ में आचार्य कक्कसूरि का पट्ट महोत्सव करके आपके उपदेश से बीस स्थानक तप का उजमा किया जिसमें ५२ ग्रामों के सङ्घ को आमंत्रण पूर्वक बुलाया । सात यज्ञ (जीमणवार ) किये । इस शुभ कार्य में तीन लक्ष द्रव्य व्यय किया । * उपकेशगच्छ में क्रमसः ६ रत्नप्रभसूरि ६ यक्षदेवसूरि २३ ककसूरि २२ देवगुप्तसूरि २२ सिद्धसूरि नाम के आचार्य हुए हैं इनके अलावा भिन्नमाल शाखा चन्द्रावतीशाखा, कीराट्कूप शाखा, खजूरपुरीशाखा वगैरह में भी आचार्यों के यही नाम थे अतः समय निर्णय करने वाले चक्र में न पड़ जाय । इसलिये पहले पट्टावलियों से जाँच कर लेनी चाहिए । १५४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003211
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages980
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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