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________________ ओसवाल जाति की ऐतिहासिकता ] [वि० पू० ४०० वर्ष १६-वीरहटगोत्रे वि० सं० ५७८ शा० सारंग के पुत्र सायर ने माघशुक्ला ५ को चन्द्रावती नगरी में आचार्य कक्कसूरि के पट्टमहोत्सव में सवालक्षद्रव्य व्यय किया । इसकी परम्परा में वि० सं० १०३७ में शा० सोनपाल ने हणावा ग्राम से श्रीशत्रुजय का संघ निकाला तथा श्रीविमलनाथ स्वामी का मंदिर बनाया जिसकीप्रतिष्टा उपकेशगच्छीय आचार्य सिद्धसूरि ने की । सोनपाल का पुत्र दहेल हुआ वह हणवा को छोड़ धारा नगरी गया इसका एक कवित्त भी मिला है। "धाराधीप देहलने पद मंत्री सिर थापै । शाह मोटो सामंत जगत सगलो दुःख कापै ॥ धर्मकर्म सहुसाचवे दान अड़कल समर पै । नवखंड नाम देहल कियो सोनपाल सुत सहु जंपै ॥ १७-भाद्रगोत्रे समदड़िया शाह हरचंद ने वि० सं० ७९९ नागपुर में प्राचार्य कक्कसूरि को ४५ आगम लिखा कर भेंट किया। __१८-श्रेष्टिगोत्रिय शा० रूपचन्द के पुत्र मलयसी ने आभानगरी में प्राचार्य देवगुप्त सूरि का पद महोत्सब किया, सम्मेतशिखर का संघ निकाल यात्रा की । इस शुभ कार्य में पुष्कल द्रव्य व्यय किया जिस का समय वि० सं० ८३९ का था। १९-लघुश्रेष्टि गोत्रिय शा० देपाल धनदेव ने वि० सं० ५९५ में आचार्य कक्कसूरि के उपदेश से भीनमालनगर से श्रीशत्रुजय का संघ निकाला जिसमें सात लक्ष द्रव्य व्यय किया । धनदेव की परम्परा के चतुर्थ पट्टधर महानंद ने चन्द्रावती नगरी में वि० सं० ६६९ में आचार्य सिद्धसूरि की अध्यक्षता में शत्रुजय का बड़ा भारी संघ निकाला। जिसमें तीन लक्ष द्रव्य व्यय कर पुन्योपार्जन किया। २०-चिंचट गोत्रे शाह वीरदेव ने वि० सं० ५९९ में शत्रुजय का संघ निकाला जिसमें आपने ७ लक्ष द्रव्य खर्च किया इस संघ में आचार्य कक्कसूरि नायक थे। ___ इस गोत्र में वि० सं० ७०३ में जल्हन का पुत्र देसल बड़ा ही नामी एवं उदार पुरुष हुआ उसने दुकाल में एक करोड़ मन धान गरीबों को दिया, आपकी संतान देसड़ा कहलाई शा० देसल ने कीराटकुम्प में मंदिर बना कर पार्श्वनाथ की सोने की मूर्ति बना कर वि० सं० ७०३ में आचार्य कक्कसूरि के कर कमलों से प्रतिष्ठा करवाई । आह-हा धर्म पर कैसी श्रद्धा और भावना थी। २१-कनोजिया गोत्रे वि० सं० ८८५ कनकावती नगरी में शा० राजधर ने श्रीशान्तिनाथ का मन्दिर बना कर प्राचार्य देवगुप्त सूरि से प्रतिष्ठा करवाई तथा शत्रुजयादि तीर्थों का संघ निकाला तत्पश्चात् राजधर ने करोड़ों की सम्पति छोड़कर आचार्यश्री के पास दीक्षा ली। इसी गोत्र में आज्जा का पुत्र कुकुम को सच्चायिका देवी तुष्टमान हुई जिससे अपार लक्ष्मीवान हुआ बाद उसने करोड़ों रुपया शुभकार्य में व्यय किया सातबार संघ निकाला, साधर्मीभाइयों को सोने मोहरों की प्रभावना दी और २१ नये मंदिर बना कर प्रतिष्टा करवाई, उजमणादि में पुष्कल द्रव्य व्यय किया इसके वंश में भोजराज हुआ, ओसियों जाकर महावीर देव का स्नात्र और सञ्चायिका देवी का महोत्सव कर याचकों को अथाह दान दिया इनका समय वि० की नौवीं शताब्दी का था। २२-इन कनोजिया गोत्र से दूधाशाह से वि० सं० ९०८ में धूपिया शाखा निकली जिसका कारण बतलाया है कि यह जिन भक्ति में सदैव लीन रहता था इनके यहां बनजारा बहुत सी कस्तूरी लाया था जिसको लेकर सब की सब मंदिरजी में धूप होता था उस पर डाल दी और वनजारे को मुह मांगे दाम दे दिये । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003211
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages980
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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