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आचार्य ककसरि का जीवन ]
[ ओसवाल संवत् ५८
श्रीसंघ की अत्याग्रह प्रार्थना को मान देकर सूरिजी ने वह चतुर्मास शिवनगर में करना स्वीकार कर लिया और वहां की जनता को जिनवाणीरूपी अमृतपान से हमेशा सिंचन करने में ही प्रस्तुत रहते थे।
एक समय का जिक्र है कि सूरीश्वरजी महाराज रात्रि समय धर्म प्रचार की भावना में तल्लीन थे और विशेष यह विचार कर रहे थे कि धन्य है ! पूज्य आचार्य स्वयं प्रभसूरि, रत्नप्रभसूरि और यक्षदेवसूरि को कि जिन्होंने अनेकानेक कठिनाइयों एवं परिसहों की तनिक भी परवाह न करते हुए, नये २ प्रान्तों में भ्रमण करके जैनधर्म का खूब ही प्रचार किया तो क्या मैं उनके बनाये हुए श्रावकों की रोटियें खाकर ही अपनी जीवनयात्रा समाप्त कर डालूगा या मैं भी कहीं अज्ञात प्रदेश में जाकर जैनधर्म का प्रचार करूंगा इत्यादि
आचार्यश्री मन ही मन में तर्क वितर्क कर रहे थे, इतने में एक आवाज ऐसी सुनाई दी कि भो आचार्य! आप यदि कच्छ प्रान्त में विहार करें तो आपको बड़ा भारी लाभ होगा और आपकी जो मनोभावना है वह भी सफल होगी इत्यादि । इस प्रकार के वचन सुन कर आचार्यश्री एकदम चौंक उठे और इधर उधर देखा तो कोई भी व्यक्ति नजर नहीं आया । सूरिजी ने सोचा कि यह अदृश्य शक्ति कौन है ? कि जो मुझे कच्छ में जाने की प्रेरणा कर रही है । इतने में तो देवी मातुला प्रत्यक्ष आकर कहने लगी कि प्रभो ! आप हमारे सिन्ध के सुपुत्त हैं आपने सिन्ध का उद्धार किया, पर अब श्राप कच्छ प्रान्त में पधारें । जैसे आपके पूर्वजों ने नये जैन बनाने में सफलता प्राप्त की है वैसे ही आपको भी सफलता मिलेगी और कच्छ जैसे मिध्यात्व व्यापक प्रदेश में जाना आप जैसे समर्थ पुरुषों का ही काम है न कि कोई साधारण व्यक्ति वहाँ जाकर कुछ कार्य कर सके । अतः पुनः प्रार्थना है कि आप कच्छ प्रदेश में अवश्य पधारें । प्राचार्य श्री ने कहा 'तथास्तु' देवीजी ! मैं जानता हूँ कि हमारे पूर्वजों को भी आप जैसे शासनशुभचिन्तक देवों का ही इशारा मिला था और उन पूज्यवरों ने अपने कृत कार्यो में सफलता भी पाई; अतः मुझे भी विश्वास है कि आपकी सहायता से मैं भी अपने कार्य में अवश्य सफलता पाऊंगा । बस, देवी तो अदृश्य हो गई । सूरिजी ने निश्चय कर लिया कि कल सुबह ही कच्छ की ओर विहार कर देना चाहिये ।
प्रभात होते ही सूरिजी ने अपने श्रमण संघ को आमन्त्रण कर अपना विचार प्रगट कर दिया कि मेरा विचार कच्छ प्रदेश की ओर विहार करने का है । अतः कठिन से कठिन तपश्चर्या के करने वाले एवं बड़े से बड़े परिसहों को सहन करने वाले मुनि मेरे साथ चलने को तैयार हो जाइये और शेष साधुओं को इस सिन्ध की भूमि में विहार कर स्वात्मा का कल्याण के साथ जनता को धर्मोपदेश दे उनका कल्याण करते रहना चाहिये । इस बात की मैं आज्ञा देता हूँ।
सिन्ध प्रदेश में अधिक विहार उपकेशगच्छाचार्यों का ही हुआ था । अतः वहाँ की जनता का संगठन वल बहुत ही मजबूत था कि राग, द्वेष केश और कद्वाग्रह को कहीं स्थान नहीं मिलता था, परन्तु जब वहाँ भी नये २ गच्छधारियों के पैर जमने लगे तो वहाँ का वह हाल नहीं रहा; फिर भी विक्रम की १३ शताब्दी तक तो केवल एक उपकेशगच्छ उपासकों के अधिकार में ५०० जैन मन्दिर थे । देखिये :--
यस्य देवगृहस्येच्छा, श्राद्देच्छावाऽपियस्यताम् । पूरये तत्र मद्देव, गृह पंचशती मम ॥ श्रावका अप्यसंख्याता, श्वलता तो झटित्यपि । संक्लेश कारकं स्थानं, दूरतः परिवर्जयेत् ।।
-उपकेशगच्छ चरित्र ४०३, ४८४ श्लोक
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