________________
[२६] मान्य बहुत ही जरूरी और बौद्धमत के मंतव्यों से बिलकुल विरुद्ध है, यह दोनों मत न केवल थम ही से स्वाधीन हैं बल्कि एक दूसरे से बिलकुल निराले हैं। (३२ श्रीयुत महामहोपाध्याय, सत्यसम्प्रदायाचार्या सर्वातंत्र स्वतंत्र पं० स्वामी राममिश्रजी शास्त्री
भूतप्रोफेसर संस्कृत कालेज बनारस यह शास्त्रीजी महोदय अपने मि० पौष शु० १ सं० १९६२ को काशी नगर में दिये हुये व्याख्यान
(१) वैदिकमत और जैनमत सृष्टि की आदि से बरावर अविछिन्न चले आये हैं और इन दोनों मतों के सिद्धान्त विशेष घनिष्ठ सम्बन्ध रखते हैं जैसा कि मैं पूर्व में कह चुका हूँ अर्थात सत्कार्यवाद, सत्कारणवाद, परलोकास्तित्व आत्मा का निर्विकारत्व, मोक्ष का होना और उसका नित्यत्व, जन्मान्तर के पुण्य पाप से जन्मान्तर में फलभोग, व्रतोपवासादि व्यवस्था, प्रायश्चित व्यवस्था, महाजनपूजन, शब्दप्रामाण्य इत्यादि समान हैं।
(२) जिन जैनों ने सब कुछ माना उनसे नफरत करने वाले कुछ जानते ही नहीं और मिथ्या द्वेषमात्र करते हैं।
(३) सज्जनो! जैनमत में और बौद्धमत में जमीन आसमान का अन्तर है उसे एक जान कर द्वेष करना अज्ञ जनों का कार्य है।
(४) सब से अधिक वह अज्ञ है जो जैन सम्प्रदाय सिद्ध मेलों में विघ्न डालकर पाप के भागी होते हैं।
(.) सज्ज नो ! ज्ञान, वैराग्य, शान्ति, क्षाति, अदम्भ, अनीळ, अक्रोध, अमात्सर्य, अलोलुपता, शाम, दम, अहिंसा, समदृष्टिता इत्याद गुणों में एक एक गुण ऐसा है कि जहां वह पाया जाय वहां पर बुद्धिमान् पूजा करने लगते हैं। तब तो जहां ये (अर्थात जैनों में ) पूर्वोक्त सब गुण निरतिशय सीम होकर विराजमान हैं उनकी पूजा न करना अथवा ऐसे गुणपूजकों की पूजा में बाधा डालना क्या इन्सानियत का कार्य है ?
(६) पूरा विश्वास है कि अब आप जान गए होंगे कि वैदिक सिद्धान्तियों के साथ जैनों के विरोध का मूल केवल अज्ञों की अज्ञता है..................
(७) मैं आपको कहां तक कहूँ, बड़े बड़े नामी श्राचार्यों ने अपने प्रन्थों में जो जैनमतखंडन किया है वह ऐसा किया है जिसे सुन कर हंसी आती है।
(८) मैं आपके सन्मुख आगे चलकर स्याद्वाद का रहस्य कहूँगा तब आप अवश्य जान जायंगे कि वह अभेद्य किला है उसके अन्दर वादी प्रतिवादियों के मायामय गोले नहीं प्रवेश कर सकते परन्तु साथ ही खेद के साथ कहा जाता है कि अब जैनमत का बुढ़ापा आगया है। अब इसमें इने गिने साधु गृहस्थ विद्वान् रह गए हैं.....
(९) सज्जनो ! एक दिन वह था कि जैनसम्प्रदाय के प्राचार्यों की कार से दशों दिशायें गूंज विठती थीं।
(१०) सज्जनो ! जैसे कालचक्र ने जैनमत के महत्व को ढॉक दिया है वैसे ही उसके महत्व को ब्राननेवाले लोग भी अब नहीं रहे ।
(११) "रज्जव सांचे सूर को वैरी करे बखान" यह किसी भाषाकवि ने बहुत ही ठीक कहा है।
Jain Education International
PMC&Personariseom
Gibrary.org