________________
आचार्य रत्नप्रभसूरि का जीवन ]
[वि० पू० ४०० वर्ष
पट्टावली नं ५ में लिखा है कि यक्षदेवसूरि ने पूर्व देश में बिहार कर कई सवा लक्ष अजैनों को जैन बनाये और ३०० मुमुक्षुत्रों को जैनधर्म की दीक्षा दी फिर भी आपकी इच्छा उस प्रान्त में विचरने की थी परन्तु आपको पुनः आचार्यश्री की सेवा में पधारने की बहुत जल्दी थी । अतः वहाँ से विहार कर जल्दी ही गुरू सेवा में उपकेशपुर पहुँच गये और अपने विहार का सब हाल सूरीश्वरजी की सेवा में निवेदन कर दिया जिसको सुनकर श्राचार्य्यश्री बहुत प्रसन्न हुये, कहा भी है कि 'कमाऊ बेटोकिसको प्यारो नहीं लागे'। आचार्य रत्नप्रभसूरीश्वरजी महाराज इधर अपना योगकार्य सफल होने के बाद राजपूताना एवं मरुधर प्रान्त में नये नये श्रजैनों को जैन बना बना कर जैनधर्म का खूब जोरों से प्रचार कर रहे थे और अनेक नये २ मन्दिरों की प्रतिष्ठा कराके जैनधर्म की नींव को मजबूत बना रहे थे। उधर पूर्व बंगाल और मगधदेश में श्राचार्य जम्बूस्वामी की अध्यक्षता में हजारों साधु जैनधर्म का प्रचार कर रहे थे । आचार्य जम्बूस्वामी को भगवान महावीर के निर्वाण के बाद २० वर्षों में केवल ज्ञान हुआ और ४४ वर्ष तक आपने केवल ज्ञान में धर्मोपदेश दिया और वीर निर्वाण संवत् ६४ में आपकी मोक्ष हुई। आपके पश्चात् श्रपके पट्टधर प्रभवस्वामी हुये । आपका चरित्र भी महाप्रभावशाली था, जिसको मैं यहां संक्षेप में लिखे देता हूँ । भगवान महावीर प्रभु के - पहले पट्टधर गणधर सौधर्म, दूसरे पट्टधर आर्यजम्बु हुए जिनका जीवन पहले पढ़ चुके हैं अब तीसरे पट्ट पर श्राचार्य श्रीप्रभवस्वामी बड़े ही प्रतिभाशाली हुये । इनकी जीवनी महत्वपूर्ण - रहस्यमयी है । श्रापका जन्म विन्ध्याचल पर्वत के समीपवर्ती जयपुर नगर के कात्यायण गोत्रिय नरेश जयसेन के घर हुआ था | आपका लघु भाई विनयधर था। जिसका स्वभाव राजसी था। छोटे भाई पर पिता विशेष प्रसन्न रहता था । विनयधर भी चतुर और राजनीति विशारद था अतएव जय सेन ने अपना उत्तराधिकारी विनयधर को ही बनाया । यह बात प्रभव को अनुचित प्रतीत हुई। प्रभव इस बात को सहन न कर सका । अतः वह अपने भाई से असहयोग कर नगर के बाहर चला गया। जाता जाता एक अटवी में पहुँच गया । वहां क्या देखता है कि उस स्थान पर बहुत से लश्कर एकत्रित हैं। वह उनके पास गया और उन्हें अपना परिचय इस ढंग से दिया कि सारे दस्युगण चाहने लगे कि यदि यह रूठा राजकुमार हमारा नायक हो जाय तो हम निर्भय होकर चोरियां करेंगे। बना भी ऐसा ही कि प्रभव उस पल्ली के ४९९ चोरों का नायक बन कर उसने जनता को हर प्रकार से लूटना प्रारम्भ किया। देश भर में त्राहि त्राहि मच गई। उस देश
राजा ने इन चोरों को पकड़ने का पूर्ण प्रयत्न किया पर एक भी चोर हाथ नहीं लगा । प्रभव ने चोरों को ऐसी युक्तियां बता दीं कि कोई उनका बाल भी बांका नहीं कर सकता था । प्रभव की प्रकृति बड़ी उम्र थी। जिस कार्य में वह हाथ डालता उसे सम्यक् प्रकार से सम्पादित कर ही लेता था । एक बार वह श्रेष्टि महल में गया और वहां जम्बुकुमार का उपदेश सुना । इस वृत्ति को तिलांजलि दे उसने अपने ४९ चोरों सहित सौधर्माचार्य के पास दीक्षा ग्रहण की। उसने उम्र प्रकृत्ति के कारण शास्त्रों का ज्ञान बहुत शीघ्र प्राप्त कर लिया। उसका कार्य इतना श्रेष्ठ हुआ कि वह अन्त में वीरात् ६४ संवत् में जम्बुमुनि के पीछे आचार्य पद पर आरूढ़ हुआ ।
जिस प्रकार प्रभव संसार में लूटने खसोटने में शूरवीर थे उसी भांति दीक्षित होने पर कर्म काटने में पूर्ण योद्धा थे । किसी ने ठीक ही तो कहा है “कर्मेशूरा ते धर्मेशूरा" । प्रभव मुनि चौरह पूर्वधरज्ञानी और सकल शास्त्र पारंगत । आपने जैनधर्म का खूब अभ्युदय किया । श्रापने अपने ज्ञावर्ती सहस्रों
११ry.org.
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.ji