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वि० पू० ४०० वर्ष ]
[भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास
_रात्रि समय सूरिजी ने स्मशान में ध्यान लगा दिया था। उसी समय यक्षराज ने मारे गुस्से के स्मशान में आकर इतना उपद्रव करना शुरु किया कि कायर मनुष्य का कलेजा फट जाय या वह जान लेकर वहां से भाग जाय । पर सूरिजी को तो इस बात की परवाह ही नहीं थी और वह यक्ष भी सूरिजी का एक बाल भी बाँका नहीं कर सका। तत्पश्चात् सूरिजी ने 'नमीउणं' महा मंत्र का जाप किया जिससे यक्ष का कोप शान्त हुश्रा और उसने सूरिजी के पास आकर शिर झुका दिया और सूरिजी उस यक्ष को उपदेश देने लगे कि हे यक्षराज ! पूर्व जन्म में तो तुमने कुछ अच्छे पुन्यों का संचय किया था कि इस भव में तुमको देवयोनि मिली है पर इस देव योनि में इस प्रकार का घोर पातक कर रहा है इसका फल सिवाय नरक के क्या हो सकेगा इत्यादि। सूरिजी के उपदेश से यक्ष को थोड़ा बहुत बोध तो हुआ पर वह था गुस्से में अतः बोला कि हे महामुनि ! इस नगर के लोग बड़े ही नालायक एवं दुष्ट हैं। इन लोगों ने मेरी बहुत आशातना की है। इतना ही नहीं पर मेरी मूर्ति को तोड़फोड़कर टुकड़े २ कर दिये हैं तो क्या मैं अपना बदला नहीं लूंगा ?
सूरिजी ने कहा, हे यक्षराज ! अगर आपका किसी ने अपराध भी किया हो तो उसका बदला लेने में आपकी बड़ाई या महत्त्व नहीं है पर उदारता के साथ उस अपराध को क्षमा करने में ही बड़प्पन है यह तो नीच पुरुषों का काम है कि अपराध का बदला लेना, दूसरे आशातना तो एक दो जीवों ने की होगी और उसका दंड सब नगर को दिया जाय यह विवेकी पुरुषों का काम नहीं है अतः आप शान्ति रक्खें ।
सूरिजी के इन वचनों से यक्ष शान्त होकर कहने लगा कि गुरु महाराज आपके उपदेश ने मेरे पर बहुत प्रभाव डाला है और आज से मैं आपको अपना गुरु ही समझता हूँ ! मैं अब आपकी आज्ञानुसार इस नगर के लोगों को किसी प्रकार का कष्ट नहीं दूंगा पर मेरी मूति वापिस बननी चाहिये । सूरिजी ने यक्ष की बात स्वीकार करली और कहा ठीक है यक्षराज ! आपकी मूर्ति बन जायगी । अतः यक्ष सूरिजी का भक्त बन गया और वन्दन नमस्कार कर कहा कि पूज्यवर ! आप जब मुझे याद करेंगे मैं सेवा में हाजिर होऊंगा । इतना कह कर चला गया।
सुबह सहस्रकिरणवाला सूर्य प्रकाशमान होते ही सूरिजी महाराज नगर के नजदीक उद्यान में पधार गये उधर नगर के सब लोग सूरिजी को वंदन करने को आये। सूरिजी ने मधुर ध्वनि से भवतारक देशना दी । व्याख्यान के अन्त में जैन जैनेतर लोगों ने अपनी दुःख कथा कह सुनाई और उसको मिटाने की प्रार्थना की । सूरिजी ने कहा कि किसी भी देवस्थान की आशातना करना इस लोक और परलोक में अहित का ही कारण है अतः तुम्हारे नगर से यक्षदेव की आशातना हुई है। यद्यपि देव मिथ्यात्वी था पर अब वह समदृष्टि बन गया है। अतः आप लोग उस यज्ञ की मूर्ति पूर्ववत स्थापित करो तुम्हारा सब संकट मिट जायगा। भक्त लोगों ने स्वीकार कर लिया । सूरिजी महाराज के इस चमत्कार को देखकर नगर के लोग जैनधर्म की भूरिभूरि प्रशंसा करने लगे। साथ में सूरिजी का भी महान उपकार समझकर कई जैनेतर लोगों ने जैनधर्म को भी स्वीकार कर लिया । अतः सूरिजी के पधारने से जैनधर्म की बड़ी भारी प्रभावना हुई। नगर में जहाँ देखो वहाँ जैनधर्म का ही यशोगान हो रहा था।
सूरिजी ने कई दिन तो गजगृह नगर में ठहरकर जनता को धार्मिक उपदेश सुनाया, बाद आस पास के प्रदेश में विहार किया तथा वहाँ के तीर्थों की यात्रा कर अपनी आत्मा को पवित्र बनाई। श्रीसंघ के अत्याग्रह से वह चर्तुमास तो राजगृह नगर में ही व्यतीत किया।
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