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आचार्य रत्नप्रभसरि का जीवन ]
[वि० पू० ४०० वर्षे
मगधदेश के अन्तर्गत राजगृह नगर में एक यक्ष ने ऐसा उत्पात मचा रखा था कि जिसके उपद्रव से सम्पूर्ण नगर निवासी लोग महान दुःखी हो गये, अर्थात् नगर में त्राहि त्राहि मच गई । इस संकट के लिए नगर निवालियों ने बहुत उपचार किये पर वे सब के सब निष्फल ही रहे ।।
मरुधर के कई मनुष्य व्यापारार्थ मगध में गये थे, वहां के लोगों ने मरुधर निवासियों के मुह से श्राचार्य रत्नप्रभसूरि की ध्वल कीर्ति एवं अतिशय प्रभाव सुना और उनकी इच्छा रत्नप्रभसूरि को मगध में लाने की हुई, अतः कई भक्तजन मगध से चल कर मरुधर में आये और प्राचार्य रत्नप्रभसूरीश्वरजी के दर्शन कर प्रसन्न हुए तदनन्तर उन मगधों ने अपनी दुःख गाथा सुनाई और श्रीसंघ का आमन्त्रण पत्र सूरीश्वर जी को दिया और साथ में पूर्व में पधारने की भी साग्रह प्रार्थना की । इस पर सूरीश्वरजी ने बहुत कुछ विचार किया पर आपश्री तो उस समय एक ऐसे ध्यान के कार्य में लगे हुए थे कि उन विशेष कारणों से पधार नहीं सके, परन्तु आपके हृदय में संघ संकट दूर करने की भावना अवश्य थी। अतः आपश्री ने अपने योग्य शिष्य यक्षदेवसूरि को आदेश दे दिया कि राजगृह श्रीसंघ की इतनी आग्रह है तो तुम जाओ और श्री संघ के संकट को दूर करो इत्यादि।
यद्यपि यक्षदेवसूरि की इच्छा सूरीश्वरजी की सेवा छोड़ने की नहीं थी, तथापि सूरीश्वरजी की आज्ञा शिरोधार्य भी करना जरूरी बात थी।
अतः गुरु आदेश को शिरोधार्य कर लिया पर उस समय कोरंटपुर का संघ भी सूरिजी से विनती करने आया हुआ था और उनकी अत्याग्रह देखकर सूरीश्वरजी ने यक्षदेवसूरिको आज्ञा दे दी कि तुम यहाँ से कोरंटपुर होकर ही पूर्व में जाना । अतः सूरिजी की आज्ञानुसार उपकेशपुर से १०० साधुओं को साथ लेकर यक्षदेवसूरि विहार कर पहिले कोरंटपुर पधारे। अतः कोरंटसंघ में खूब हर्ष एवं उत्साह फैल गया । सूरि जी महाराज ने जिस कार्य के उद्देश्य से पूर्व की ओर पधारने का इरादा किया था वह आपकी परीक्षा तो पहले ही होने वाली थी कि कोरंटपुर में आपके किसी लघु शिष्य ने पात्र प्रक्षालन का जल बिना उपयोग से एक यक्ष की मूर्ति पर डाल दिया । बस, यक्ष क्रोधित हो उस साधु को पागल सा बना दिया । यह घटना सूरिजा ने सुनी तो साधु को उपालम्ब दिया और उस यज्ञ को प्रत्यक्ष में बुलाकर ऐसा समझाया कि वह सूरिजी महाराज का परम भक्त बनगया । खैर सूरिजी महाराज ने कुछ अर्सा तक कोरंटपुर में स्थिरता कर वहां से विहार किया तो शौरीपुर मथुरा की यात्रा करते हुए पूर्व प्रान्त में पदार्पण किया।
क्रमशः वे विहार करते हुए मगध प्रान्त एवं राजगृह नगर में पधार गये समय के अभाव उस रोज श्राप नगर के बाहर स्मशानों में ही ठहर गये । नगर में सवत्र यह बात फैल गई थी कि मरुधर कान्त से एक जबर्दस्त जैन साधु आया है अतः अब अपना सब दुःख संकट दूर हो जायगा। १-मूरिः कोरंटकपूरे, कदाऽपिविहरन् ययौ। मणिभद्राख्ययक्षस्य, समनिस्थितिमादधे ॥
तच्छिष्योलघुकाकोऽपि, यक्षमूनि मोख्यतः। बालभावाचंचलत्वात् पात्रक्षालनवार्यधात् ॥ ततः प्रकुपितोयक्षः, शिष्यं तं पहिलंव्यधात् । सरयोज्ञानतोज्ञात्वा, निग्रहं साग्रहं व्यधुः ।।
निगृहीतः स आचायः, सेवकत्वं प्रपन्नवान् । यक्षाऽऽराद्ध पदस्यास्य, सान्वयं नामचाभवत् ॥ २-शौरिपुय्यां च मथुरायां. विहरन्तो मुनीश्वराः । अंग बंग कलिगेषु, मगधेषु तथैव च ॥ __पताकोत्सर्पितातैस्तु जैनधर्मस्य शाश्वती । धर्मात्मानोहि कुर्वन्ति, धर्मकृतंनिरन्तरम् ।।
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