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वि० पू० ४०० वर्ष ]
[ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास
साधुओं का संगठन एवं संचालन भी बड़ी खूबी से किया। हजारों नरनारियों को दीक्षित कर आपने जैनशासन के उत्थान में पूरा हाथ बँटाया ।
आपने अन्तिम अवस्थामें श्रुतज्ञान द्वारा उपयोग लगा कर जानना चाहा कि मैं अपने पीछे आचार्यपद से किसको विभूषित करू ? पर कोई साधु दृष्टिगोचर नहीं हुआ तब आपने श्रावकवर्ग की ओर निरीक्षण किया तो कोई होनहार पुरुष नहीं जँचा । आपने आश्चर्य किया कि मेरे सम्मुख आज करोड़ों जैनी हैं क्या कोई भी आचार्यपद के योग्य नहीं है ? तो अब क्या किया जाय ? तब आपने जैनेतर लोगों की ओर दृष्टिपात किया तो आपने समस्या हल होने की सम्भावना अनुभव की । आपको ज्ञान हुआ कि राजगृह नगर का रहने वाला यक्षगौत्रिय यजुर्वेदीय यज्ञारंभ करते हुए अप्रेश्वरों में शय्यंभव भट्ट इस पद के योग्य हो सकता है । इसके अतिरिक्त और कोई नहीं है । तब आपने अपने साधुओं को उस स्थान की ओर भेज कर यह संदेश कहलाया कि वहां यज्ञ करने वालों को जाकर बार २ कहो कि "अहो कष्टं महोकष्टं तवं न ज्ञायते परम्" । इस सूत्र को बार बार उच्चारण करो तथा वापिस लौट श्रश्र । श्राचार्यश्री की आज्ञानुसार मुनिगरण उस शान्त स्थान की ओर गये और शय्यंभवभट्ट के समक्ष जाकर उपरोक्त वाक्य की कई बार पुनरावृति की ।
भवभट्ट ने विचार किया कि यह निरापेक्षी जैनमुनि असत्य नहीं बोलते। क्या मेरा श्रम सब व्यर्थ है ? क्या सचमुच मैं प्रतिकूल मार्ग का पथिक हूँ ? सत्यासत्य का निर्णय करने के हित वह अपने गुरु के पास खम लेकर गया और पूछा कि आप सत्य सत्य सप्रमाण कहिये कि इस क्रियाकाण्ड का क्या फल है ? यदि तुमने संतोषप्रद उत्तर नहीं दिया तो इसी तलवार से तुम्हारी खबर लूंगा । गुरू ने देखा कि अब श्रसत्य कहने से जान जोखों में है तो सत्य हाल कह दिया कि वत्स ! इस यज्ञ के स्तम्भ के नीचे जैनतीर्थकर शान्तिनाथ स्वामी की मूर्ति है और इसी मूर्ति के अतिशय से ही अपना यज्ञ का कार्य चल रहा है । अन्यथा अपना इतना प्रभाव कभी नहीं पड़ सकता था। यह समाचार सुनते ही शय्यंभवभट्ट ने यज्ञ स्तम्भ को हटा कर शांन्तिनाथ भगवान की मूर्ति निकाल कर दर्शन किये। दर्शन करते ही उसे प्रतिबोध हुआ । मिथ्या गुरू को त्याग कर आपने सम्यक् दर्शन का अवलम्बन लिया, यज्ञ यागादि की निष्ठुर क्रियाओं से दूर होकर आपका मन शुद्ध जैनधर्म के चरित्र की ओर झुक गया । आपने प्रभव आचार्य के पास जाकर दीक्षा ग्रहण की। दीक्षा लेकर आपने गुरुकुल में रह चौदहपूर्व का अध्ययन एवं मनन किया ।
श्राचार्य प्रभवसूरि आचार्यपद का भार शय्यंभवमुनि को दे निवृत्ति मार्ग पर चलते हुये व्यवहारगिरि पर्वत पर अनशन लेकर वीरात् ७५ संवत् को स्वयं स्वर्गधाम पधारे। आपके पट्ट पर आचार्य शय्यंभवाचार्य हुए, अतः आपका सक्षिप्त परिचय भी यहां करवा दिया जाता है।
भगवान महावीर के चौथे पट्ट पर शय्यंभवसूरि बड़े ओजस्वी एवं निस्पृह हुए। जिस समय आपने यज्ञ आदि को त्याग कर प्रभवश्राचार्य के पास दीक्षा ग्रहण की थी उस समय आपकी धर्मपत्नी गर्भवती थी | इस गर्भ से मतक नामक पुत्र उत्पन्न हुआ । जब यह बालक आठ वर्ष का हुआ तो सहपाठियों द्वारा प्रश्न पूछे जाने पर अपनी माता को आकर पूछने लगा कि मेरे पिताजी कहाँ हैं ? माता ने अपने पुत्र मनको उत्तर दिया कि बेटा "तेरा पिता तो जैन साधु है, जब तू मेरे गर्भ में था तब उन्होंने एक जैनाचार्य के पास दीक्षा ली थी। आज वे मुनि राजा महाराजाओं से पूजे जाते हैं । तेरे पिता अपनी योग्यता से वहाँ भी आज आचार्य पद पर सुशोभित हैं "।
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