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आचार्य रत्नप्रभसूरि का जीवन ]
[ वि० पू० ४०० वर्ष
___ जब माता से पुत्र ने यह बातें सुनी तो उसकी भी इच्छा हुई कि एक बार चलकर देख तो आऊं कि वे आचार्य कैसे हैं ? विचार करते २ उपने मिलने के लिए प्रस्थान करना निश्चय किया। उसने सोचा कि कदाचित् माताजी मेरे प्रस्ताव से सहमत न हों अतएव बिना पूछे चुपचाप वहां से भाग जाना ही ठीक है। 'मनक' अन्त में घर से बाहर निकल गया और शय्यंभव आचार्य का समाचार पूछता पूछता चम्पानगर में पहुँच गया । नगर के द्वार पर यह बैठा था कि उसने आचार्य श्री को प्रवेश करते हुये देखा । उसने उन्हें जैनमुनि समझ कर पूछा कि क्या आपको ज्ञात है कि मेरे पिता शय्यंभव, जो आज कल आपके आचार्य कहलाते हैं इस नगर में हैं ? आचार्यश्री ने उत्तर दिया कि “सो तो ठीक, पर तुम्हें उनसे अब क्या सरोकार है । क्या तुम्हें पिता के पास दीक्षा लेना है ?" मनक ने उत्तर दिया, "जी हाँ, मेरी इच्छा है कि मैं भी दीक्षा लूँ"। आचार्य श्री ने कहा कि यदि तुम्हारी ऐसी ही इच्छा है तो चलो मेरे साथ । मैं वही हूँ। तुम्हें दीक्षा दूंगा। मनक की दीक्षा समारोह के साथ हुई । आचार्य श्री ने विचार किया कि इस मनक मुनि को कुछ अध्ययन कराना चाहिये क्योंकि श्रुतज्ञान के योग से ज्ञात हुआ कि इसकी श्रायु स्वल्प है। आचार्य श्री जो शिक्षा प्रणाली से पूर्ण परिचित थे इस मुनि के पाठ्यक्रम की नई योजना करने लगे। पाठ्यक्रम बनाने के हेतु से पूर्वाग उद्धृत कर बैकाल के अन्दर दशाध्ययन सङ्कलित कर उसका नाम दशवकालिक सूत्र रख दिया और मनक मुनि ने इस सूत्र का अध्ययन कर केवल अर्द्ध वर्ष में ही आराविपद प्राप्त कर स्वर्ग की ओर स्थान किया ।
जिस समय मनक मुनि का देहान्त हुआ उस समय आचार्य श्री की आंखों से आंसुओं की झड़ी लग गई । इन प्रेमाश्रुओं से अन्य मुनियों ने उदासीनता समझ कर आचार्यश्री से प्रश्न किया कि आपकी इस दशा का क्या कारण है ? आचार्य श्री ने उत्तर दिया कि मनक मेरा सांसारिक नाते से पुत्र और धार्मिक नाते से लघु शिष्य था । ऐसी छोटी उम्र में काल कर जाने के कारण मुझे खेद है पर साथ में मेरे ही हाथों से इसने चारित्र आराधन कर उच्च पद को प्राप्त किया है इसी का मुझे हर्ष है।
यशोभद्र आदि मुनियों ने पूछा, "भगवन् ! आपने यह बात हमें प्रथम क्यों नहीं प्रकाशित की ? अन्यथा हम इसकी वय्यावच्च का पूर्ण लाभ उठाते।"
श्राचार्य श्री ने उत्तर दिया कि यदि यह नाता मैं पहिले बता देता तो कदाचित इसके अध्ययन में व ध्यान में कुछ खामी रह जाती ! इसी कारण से मैंने तुम्हें यह बात नहीं कहो । फिर आचार्य श्री ने विचार किया कि उस नूतन सूत्र दशवकालिक को पुनः पूर्वाग तक संहारण करूँ। इस पर चतुर्विध संघ ने अनुरोध किया कि भगवन् ! इस पंचमकाल में ऐसे सूत्र की नितान्त आवश्यकता है अतएव आप इस सूत्र को ऐसा ही रहने दीजिये ताकि अल्प बुद्धि वाले भी इसका आराधन कर अपना कल्याण करने में समर्थ होवें । आचार्य श्री ने उनका प्रस्ताव स्वीकार कर वह सूत्र उसी रूप में रहने दिया। इसी सूत्र के प्रताप से आज साधु साध्वियां अपना कल्याण कर रही हैं और इस बारे के अन्त तक कई प्राणी अपना उद्धार करेंगे।
आचार्यश्री शय्यंभवसूरि बड़े ही उपकारी हुये । धर्म का प्रचार अपने प्रबल प्रयत्न से करते रहे ।
आचार्य रत्नप्रभसूरि ने इस भूमि पर जन्म लेकर अपने कल्याण के साथ अनेक भव्यों का कल्याण किया। इतना ही क्यों पर महाजन संघ रूपी एक कल्प वृक्ष लगाकर उनकी वंश परम्परा हजारों वर्षों तक चिरस्थायी बना दी । आपने अपने जीवन में १५०० साधु ३००० साध्वियां और १४:०००० घर वाले
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