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________________ वि० पू० ४०० वर्षे । [ भगवान् पार्श्वनाथ को परम्परा का इतिहास आचार पतित क्षत्रियों को जैन बना कर जैनशासन को खूब उन्नति की । और मारवाड़ जैसे प्रान्त में अनेक जैन मंदिर मूर्तियों की प्रतिष्ठा करवा कर जैन धर्म की नींव सुदृढ़ बनाकर धर्म को चिरस्थायी बना दिया। श्राचार्य रत्नप्रभसूरि एवं आपके साधुओं का विशेष विहार उपकेशपुर एवं उसके आस पास के प्रदेश में होने से आगे चलकर उनके समूह एवं सम्प्रदाय का नाम उपकेशगच्छ हुआ और आचार्य कनकप्रभसूरि के श्रमणों का विहार प्रायः कोरंटपुर एवं उसके आस पास के प्रदेश में होने से वह समूह कोरंटगच्छ के नाम से प्रसिद्ध हुआ। ___ कहने की आवश्यकता नहीं है कि जैन समाज पर इन आचार्यों का कितना जबर्दस्त उपकार है कि जिन्होंने मांस मदिग आदि दुर्व्यसन सेवन से नरक के अभिमुख हुए जीवों का दुव्र्यसन छुड़ा कर जैनी बना स्वर्ग मोक्ष के अधिकारी बनाये । यदि इस उपकार को हम लोग क्षण भर भी भूल जाय तो हमारे जैसा कृतघ्नी पापी जगत में कौन होगा ? अतः उन पूज्यवर आचार्यों का प्रति समय उपकार समझ स्मरण करना हमारा सबसे प्रथम कर्तव्य है । लोक युक्ति है किगुरु गोविन्द दोनों खड़े, किस के लागू पाय । बलिहारी गुरु देव की सो, मार्ग दिया बताय ॥ ___ मैं इन परोपकारी सूरीश्वर के सम्पूर्ण जीवन से न तो इतना वाकिफ हूँ और न इस लोहे की तुच्छ लेखनी से लिख ही सकता हूँ,तथापि जितना मसाला मुझे मिला है वह एक बालकीड़ा की तौर लिखा है । फिर भी मैं उम्मेद रखता हूँ कि मेरा यह लिखा हुआ संक्षिप्त जीवन भी जैनसमाज के लिए परोपकारी होगा। आचार्य रत्नप्रभसूरि का जन्म महावीर निर्वाण का वर्ष था आपने ४० वर्ष की उम्र में राजपाट सुख सम्पति एवं कुटुम्ब परिवार को त्यागन करके आचार्य स्वयंप्रभसूरि के चरण कमलों में भगवती जैनदीक्षा को ग्रहण किया तत्पश्चात् १२ वर्ष पर्यंत ज्ञान ध्यान एवं प्राचार्य पद योग्य सर्व गुण संपन्न होकर वीरात् ५. वें वर्ष आचार्य पद पर आरूढ़ हुए और अठारह वर्षों के बाद उपकेशपुर नगर में पधार कर आचार पतित क्षत्रियों को जैन धर्म की दीक्षा शिक्षा देकर 'महाजन संघ' की स्थापना करी तथा १४ वर्ष तक उसकी खूब वृद्धि करी । अन्त में १५०० साधु ३००० साध्वियां और असंख्य भक्त गणों के साथ भवतारक परम पुनीत तीर्थाधिराजश्री शत्रुजय तीर्थ की यात्रा कर वहां चतुर्विध श्री संघ की विद्यमानता में अनसन एवं समाधि के साथ जैनधर्म की आराधना पूर्वक इस नाशवान शरीर का त्याग कर वीरात् ८४ वर्ष माघशुक्ल पूर्णिमा के दिन बारहवाँ अच्युत स्वर्ग की ओर प्रस्थान किया। अतः ओसवाल समाज का यह सब से पहिला कर्त्तव्य है कि वे प्रति वर्ष श्रावण कृष्ण चतुर्दशी के दिन श्रोसवाल जाति का जन्म दिन का महोत्सव और माघ शुक्ल पूर्णिमा के दिन बडी २ सभायें करके आचार्यरत्नप्रभ सूरि की जयन्ति मनाकर यह शुभ सदेश प्रत्येक प्राणी के हृदय तक पहुँचाकर कृतार्थ बने । षष्टम पट्टधर जो हुए आचार्य रत्न सुनाम था। विद्याधरों के अग्र थे उद्धार उनका काम था॥ उपकेशपुर में पहुंच नृपति रविवंशी उपलदेव को । दीक्षित किया मंत्री ऊहड़ सह लक्ष क्षत्री वीर को॥ उपकेशवंशी ओसवंशी ही आज ओसवाल है । आचार्य गुण कैसे करे उनका बहुत उपकार है। ॥ इति भगवान पार्श्वनाथ के छटे पट्टधर आचार्य श्री रत्नप्रभसूरि का संक्षिप्त जीवन ॥ Jain Eduronternational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003211
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages980
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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