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आचार्य रत्नप्रभरि का जीवन ]
सिंहावलोकन
१ - वीर निर्वाण संवत् एक में आचार्य रत्नप्रभसूरि का विद्याधर वंश में जन्म |
२ - वी० नि० सं० ४० में आचार्य स्वयंप्रभसूरि के हाथों से रत्नप्रभसूरि की दीक्षा । ३ - वी० नि० सं० ५२ में आचार्यश्री स्वयंप्रभसूरि के करकमलों से आचार्य रत्नप्रभसूरि का श्राचार्य पद प्रतिष्ठत होना ।
४ - वी० नि० सं. ७० के वैशाख मास में श्राचार्य रत्नप्रभसूरि का ५०० मुनियों के साथ में उपशपुर पधारना |
५ - वी० नि० सं०७० श्रावण कृष्ण चतुर्दशी के शुभदिन में रत्नप्रभसूरि ने उपकेशपुर के सूर्यवंशी राजाउत्पलदेव चान्द्रवंशी मंत्री ऊहड़ और नागरिक क्षत्रियों को कुव्यसन छुड़ाकर जैनधर्म में दीक्षित करना ।
[वि० पू० पू० ४०० वर्ष
६ -- वी० नि० सं० ७० श्रावण शुद्ध प्रतिपदा के शुभदिन में उन नूतन जैनों की 'महाजन संघ' रूपी एक सुदृढ़ संस्था कायम करना ।
७ - वी. नि. सं. : ७० माघशुक्ल पंचमी के दिन आचार्य रत्नप्रभसूरि के कर कमलों से उपकेशपुर और करंटपुर नगर में महावीर मन्दिर की प्रतिष्ठा का होना ।
८ - वी. नि. सं. ७० में कोरंटपुर के श्रीसंघ द्वारा कनकप्रभ को श्राचार्य पद होना ।
९ - वी. नि. सं. ७७ में उपकेशपुर के महाराजा उत्पलदेव के बनवाये पहाड़ी पर के प्रभु पार्श्वनाथ के मन्दिर की प्रतिष्ठा आचार्य रत्नप्रभसूरि एवं कनकप्रभसूरि के कर कमलों से होना ।
१० - वी. नि. सं. ८२ में आचार्य रत्नप्रभसूरि के कर कमलों से वीरधवलोपाध्याय को श्राचार्य पद से विभूषित कर आपका नाम यक्षदेव सूरि रखना और श्राचार्य रत्नप्रभसूरिजी अन्तिम शलेखनायोग एवं ध्यान में लग जाना । यह पहले जमाना की पद्धति थी कि आचार्य श्री अपने गच्छ का भार किसी योग्य मुनि को देकर, आप विशेष निर्वृति में लग जाते थे तदानुसार आचार्य रत्नप्रभसूरि ने भी किया था । ११ - वी. नि. सं. ८३ में आचार्य यक्षदेवसूरि ने राजगृह नगर में उपद्रव करते हुये यक्ष को प्रतिबोध करके वहाँ चतुर्मास किया तथा पूर्व देश की यात्रा कर सवा लक्ष नये जैन तथा ३०० साधु साध्वियों को दीक्षा देकर पुनः उपकेशपुर पधारना ।
१२-- श्राचार्य रत्नप्रभसूरि का अपने शेष जीवन में १४००००० नये जैन श्रावक श्राविकाओं तथा १५०० साधु ३००० साध्वियों को जैनधर्म की दीक्षा देना ।
१३- वी. नि सं. ८४ माघशुल्क पूर्णिमा के दिन श्री सिद्धगिरि पर श्राचार्य यक्षदेवसूरि को गच्छ नात्रक पदार्पण कर चतुविध श्रीसंघ की मोजुदगी में अनशनपूर्वक आचार्य रत्नप्रभसूरिका स्वर्गवास होना । १४ - श्रीसिद्धगिरी पर श्रीसंघ की ओर से आचार्य रत्नप्रभसूरि के स्मृति के लिये एक विशाल स्तूप
करवाना ।
দিস
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