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वि० पू० १२ वर्ष ]
[ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास
नवसयतेणउएहिं (९९३), समइक्कतेहिं वद्धमाणाओ ।
पज्जोसवणचउत्थी, कालिकमरीहिंतो ठविआ ॥ ५८ ॥ रत्न संच्य प्रकरण से १-प्रथम कालकाचार्य वीर नि० सं० ३३५ से ३७६ में २-द्वितीय कालकाचार्य वीरात् ४५३ से ४६५ तक ३-तृतीय कालकाचार्य वीर नि० सं० ७२० में ४-चतुर्थ कालकाचार्य वीरात् ९९३ वर्ष में ।
कालकाचार्य के साथ घटित घटनाएं १-- राजादत्त को यज्ञफल बतलाकर प्रतिबोध करना । आवश्यक चूर्णी में २- प्रज्ञापन्ना सूत्र की रचना करना । प्रज्ञापन्ना सूत्र में ३-इन्द्र को निगोद * का स्वरूप बतलाना । उत्तराध्ययन नियुक्ति में ४-आजीविकों से निमित्त पढ़ना । पंचकल्प चूर्णी में । ५-अनुयोग का निर्माण करना + | पंचकल्पचूर्णी में ६-गर्दभिल्ल का उच्छेद और साध्वी सरस्वती की रक्षा । निशीथचूर्णी व्यवहार चूर्णी में । ७–साँवत्सारिक पर्व भाद्रपद शुक्ल पंचमी का चतुर्थी को करना । निशीथ चूर्णी में ।
28 इन्द्र ने निगोद के जीवों का स्वरूप पूछा इस घटना के लिए शास्त्रकारों ने तीन आचार्यों के लिए घटित की है :-प्रथम कालकाचार्य (श्यामाचार्य) के साथ २-दूसरा कालकाचार्य जिनको निगोद व्याख्याता के नाम से बतलाया है ३-और तीसरे आर्यरक्षित सूरि के साथ जैसे
इतश्चस्ति विदेहेषु श्री सीमंधर तीर्थकृत । तदुपास्त्यै ययौ शक्रोऽश्रौषीह्याख्यां च तमन्नाः ॥ निगोदाख्यान माख्याच्च केवली तस्य तत्त्वतः । इन्द्रः पप्रच्छ भरते को ऽन्यस्तेषां विचारकृत् ॥ अथाहत्याह मथुरानगर्यामार्यरक्षितः । निगोदान्मद्वदाचष्ट ततो ऽ सौ विस्मयं ययौ ॥ प्रतीतोऽपि च चित्रार्थ वृद्धब्राह्मणरूपभृत् । आययौ गुरुपार्थे स शीघ्र हस्तौ च धूनयन् ।। काशप्रसूनसंकाशकेशो यष्टि श्रिताङ्गकः । सश्वासप्रसरो विष्वग्गलच्चक्षुर्जलप्लवः ॥ एवंरूपः स पप्रच्छ निगोदानां विचारणम् । यथावस्थं गुरुाख्यात्सोऽथ तेन चमत्कृतः ॥ जिज्ञासुनिमहात्म्यं पप्रच्छ निजजीवितम् । ततः श्रुतोपयोगेन व्यचिन्तयदिदं गुरुः ॥ तदायुर्दिवसैःपझैमासैः संवत्सरैरपि। तेषां शतैः सहस्त्रैश्चातुतैरपि न मीयते ॥ लक्षाभिः कोटिभिः पूर्वैः पल्यैः पल्यशतैरपि । तल्लक्षकोटिभिनैव सागरेणापि नान्तभृत् ॥ सागरोपमयुग्मे च पूर्णेशाते तदायुषि । भवान् सौधर्म सुत्रामा परीक्षा किं म ईक्ष से ॥
प्रभावक चरित आयरक्षित प्रबन्ध पृ० २६ यह एक ही घटना तीन आचार्यों के साथ लिखी गई है या एक घटना तीन बार बनी है । सम्बन्ध देखने से पाया जाता है कि यह घटना द्वितीय कालकाचार्य ( सरस्वती का भाई) के साथ घटी है। आगे उपरोक्त गाथा में वी. नि० सं ७२० में जो कालकाचार्य हुये लिखाहैं उनके साथ भी सक्कसंथुणिओं' लिखा है । शायद इसका अर्थ भी वही हो कि इन्द्र ने स्तुति की है परन्तु किस विषय के लिये इनका वर्णन दृष्टिगोचर नहीं होता है
+ पढमणुओगे कासी जिण-वक्कि-दसार चारिय पुन्वभवे । कालगसूरी बहुयं लोगणुओगे निमितं च ॥
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