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________________ वि० पू० १२ वर्ष [भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास लक्षण क्षत्रियवंशोचित थे । यों तो आप पुरुषकी ७२ कला में निपुण थे पर वाणविद्या और अश्वपरीक्षा ये दो गुण आपमें असाधारण थे। राजकन्या सरस्वती भी महिलाओं की ६४ कला में प्रवीण थी। आपका घराना जैनधर्म का परमोपासक था अतः कुंवर कालक और राजकन्या सरस्वती के धार्मिक संस्कार बचपन से ही जम गये थे और वे दोनों धार्मिक अभ्यास भी किया करते थे। एक समय आचार्य गुणाकरसूरि जो विद्याधर शाखा के प्राचार्य थे अपने शिष्य समुदाय के साथ भ्रमण करते हुये धारावासनगर के उद्यान में पधार गये । राजा प्रजा ने सूरिजी का सुन्दर सत्कार किया और धर्मोपदेश श्रवण करने को उद्यान में गये । अतः सूरिजी ने भी आये हुये धर्म-पिपासुओं को देशनामृत का पान कराना शुरू किया। ठीक उसी समय राजकुंवर कालक अश्व खिलाता हुआ उस उद्यान के एक भाग में आ ठहरा, इससे सूरिजी की वाणी उसको कर्णप्रिय हो गई। कालक ने सूरिजी का सम्पूर्ण व्याख्यान सुना और बाद में प्राचार्यश्री के पास जाकर वन्दन किया । सूरिजी ने राजकुमार के शुभलक्षण देख संसार की असारता राज ऋद्धि एवं लक्ष्मी की चंचलता और विषय कषाय के कटुक फलों को इस कदर समझाया कि उसका दिल संसार से विरक्त हो गया । साथ में सूरिजी ने तप संयम की आराधना से अक्षय सुखों की प्राप्ति के लिये भी गम्भीरता पूर्वक समझाया कि जिससे कालकने निश्चय कर लिया कि माता पिता की आज्ञा लेकर मैं सूरिजी के चरण कमलों में दीक्षा ग्रहण कर लंगा । जब कुमार ने माता पिता के पास आकर अपने दिल की बात कही तो वे कब चाहते थे कि कालक जसा पुत्र हमारे से सदैव के लिये अलग हो जाय । उन्होंने बहुत कहा पर जिनके हृदय पर सच्चा वैराग्य का रंग लग जाता है उन्हें संसार कारागृह के सदृश्य दीखने लग जाता है। विशेषता यह हुई कि कालक की बातें सुनकर राजकन्या सरस्वती भी संसार से विरक्त हो दीक्षा लेने को तैयार हो गई । आखिर राजा ने दीक्षा-महोत्सव किया और कालक एवं सरस्वती ने सूरिजी के चरण कमलों में दीक्षा ग्रहण कर ली । मुनि कालक ने ज्ञानाभ्यास कर सर्व गुणों को सम्पादित कर लिया। जिन्होंने संसार में राजपद योग्य सर्व गुण हासिल कर लिया तो मुनिपने में सूरिपद योग्य गुण प्राप्त करले इसमें आश्चर्य ही क्या हो सकता है । आचार्य गुणाकर सूरि ने मुनि कालक को सर्वगुण सम्पन्न जान कर सूरि पद से विभूषित कर कई साधुओं के साथ अलग विहार करने की आज्ञा दे दी। कालकाचार्य विहार करते एक समय उज्जैनकनगरी के उद्यान में पधारे, इधर से साध्वियों के साथ २ प्रव्रज्यादायि तैस्तस्य तया युक्तस्य च स्वयम् । अधीती सर्वशास्त्राणि स प्रज्ञातिशयादभूत् ॥२४॥ * स्वपट्टे कालकं योग्यं प्रतिष्ठाप्य गुरुस्ततः । श्रीमान् गुणाकरः सूरिः प्रेत्यकार्याण्यसाधयन् ॥ २५॥ 28 अथ श्री कालकाचार्यो विहरन्नन्यदा ययौ । पुरीमुज्जयिनी वाह्यारामेऽस्याः समवासरत् ॥ २६ ॥ मोहान्धतमसे तत्र मनानं भव्यजन्मिनाम् । सम्यगर्थप्रकाशेऽभूत्प्रभूष्णुमणि दीपवत् ॥ २७ ॥ तत्र श्रीगर्दभिल्लाख्यः पुर्यां राजा महाबलः । कदाचित्पुरवाहो| कुर्बाणो राजपाटिकाम् ॥ २८ ॥ कर्मसंयोगतस्तत्र ब्रजन्तीमैक्षत स्वयम् । जामि कालकसूरीणां काको दधिघटीमिव ॥ २९ ॥ हा रक्ष रक्ष सोदर्य क्रन्दन्ती करुणं स्वरम् । अपाजीहर दत्युग्रकर्मभिः पुरुषः स ताम् ॥ ३० ॥ साध्वीभ्यस्तत्परिज्ञाय कालक प्रभुरप्यथ । स्वयं राजसमज्यायां गत्वावादीत्तदग्रतः ॥३१॥ ४२२ श्री वीरपरम्परा Jain Education international For Private & Personal Use Only Magainelibrary.org
SR No.003211
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages980
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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