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आचार्य केशीश्रमण का जीवन )
[वि० पू० ५५४ वर्ष
भगवान का अभिवंदन किया और भगवान ने उनको धर्मदेशना सुनाई उस समय पहिले देवलोक में रहने वाला सूरयाम नाम के देव ने अपने ऋद्धि एवं परिवार के साथ आकर भगवान का वंदन किया। भगवान ने उसको भी धर्म उपदेश दिया जिसको श्रवण कर के सूरयाभ ने कहा कि हे प्रभो! आप सर्वज्ञ हैं, अतः मेरी भक्ति को जानते हो परन्तु यह गोतमादिक मुनि हैं जिनको मैं भक्तिपूर्वक ३२ प्रकार का नाटक कर के बतलाऊंगा ऐसे दो तीन बार कहा उस पर भी भगवान ने मौन ही रक्खा 'मौनं सम्मति लक्षणं' बस, सूरयाभ ने ३२ प्रकार का नाटक किया, बाद भगवान को बन्दन कर के स्वर्ग चला गया।
__ गोतमने सूरयाम देव का पूर्वभव पूछा जिसके उत्तरमें भगवानने फरमाया कि इस भारतके वक्षस्थल पर केकयी जिनपद देशकी श्वेताम्बिका नाम की नगरी में राजा प्रदेशी राज करता था परन्तु वह था नास्तिक, जीव
और शरीर को एक ही मानता था अतः वह परभव और पुन्य पाप के फल को भी नहीं मानता था । फिर वह पाप करने में उठा ही क्यों रक्खे ? अतः वह राजा अधर्म की ध्वजा ही कहलाता था। राजा प्रदेशी के सूरिकान्ता परमवल्लभ एवं प्रियकारिणी रानी थी और सूरिकान्त नाम का कुवर था वह राजकाय चलाने में पड़ा ही कुशल था । राजा प्रदेशी के चित्त नाम का प्रधान था वह भीचार बुद्धि निपुण एवं बड़ा ही विचा. रज्ञ, प्रत्येक राजकार्य में सलाह देने वाला मुत्सद्दी था। राजा के अधर्म कार्य को वह सहन नहीं कर सकता था और उसको अच्छे रास्ते पर लाने की कोशिश किया करता था।
एक समय राजा प्रदेशी को सावत्थी नगरी के राजा जसतु के साथ ऐसा कार्य उपस्थित हुआ कि उसने अपने प्रधान चित्त को सावत्थी भेजा । प्रधान चित्त सावत्थी जाकर अपने राजा की भेंट वहां के राजा की सेवा में रख जिस काम के लिये आया था उसको राजा से कह कर उस कार्य में लग गया। . चित्त प्रधान ने सुना कि यहां शहर के बाहर कोष्ठक नाम के उद्यान में पार्श्वनाथ के सन्तानिये केशीश्रमण आये हुए हैं अतः वहाँ से चल कर केशीश्रमण के पास आया और केशीश्रमण ने उस चित प्रधानादि को धर्म उपदेश सुनाया जिसको श्रवण कर के चित प्रधान बहुत खुश हुआ और वह गृहस्थ धर्म पालन करने योग्य श्रावक के बारह ब्रत प्रहण कर आचार्य श्री का परम भक्त बन गया। इधर राजा जय. शत्रु ने प्रधान का कार्य कर दिया और राजा प्रदेशी से प्रेम की वृद्धि के लिए बहुमूल्य भेंट तैयार कर प्रधान को दे दी । जब प्रधान ने अपने नगर को जाने की तयारी करी तो वह अपने गुरु महाराज को वंदन करने के लिये उद्यान में आया और वंदन कर के प्रार्थना की कि हे प्रभो ! आप श्वेताम्बिका नगरी पधारें आपको बहुत लाभ होगा। एक बार नहीं परन्तु दूसरी तीसरी बार कहा इस पर प्राचार्य ने फरमाया कि चित्त तू बुद नीतिज्ञ है और समझ सकता है कि बगीचा कितना ही सुन्दर या फलफूल वाला हो, परन्तु उसमें एक शकारी पारिधि बैठा हो तो क्या वनचर पशु या खेचर जानवर आ सकता है ? अतः तेरी श्वेताम्बिका केतनी ही अच्छी हो परन्तु प्रदेशी जैसा जहाँ पारिधि है वहाँ कैसे आया जाय । इस पर चित्त प्रधान ने म्हा हे प्रभो ! श्वेताम्बिका नगरी में बहुत उदार चित वाले एवं भद्रिक लोग हैं । आपके पधारने पर वह लोग मापकी सेवा भक्ति उपासना करेंगे और विविध प्रकार का असान पान खादिम सादिम प्रतिलाभ करेंगे। फिर आपको प्रदेशी राजा से क्या प्रयोजन है ? यदि आपका वहां पधारना हो जाय और प्रदेशी राजा को उपदेश देने पर वह संभल गया तो बहुत द्विपद चौपद प्राणियों को आराम पहुँचेगा इत्यादि। इस पर पाचार्य महाराज ने फरमाया ठीक है चित्त, वर्तमान योग अर्थात् अवसर देखा जावेगा। बस, चित्त साधुओं
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