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________________ वि० पू० ५५४ वर्ष ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास की परिभाषा से समझ गया कि प्राचार्य श्री अवश्य हमारे नगर में पधारेंगे। चित्त प्रधान गुरु महाराज को वंदना कर के वहाँ से रवाना हो गया । क्रमशः वह श्वेताम्बिका नगरी में पहुँचा तो सबसे पहिले मुनियों को ठहरने के लिये बनपालक को कर दिया कि यदि कोई जैनश्रमण यहाँ आ जावें तो तुम उनकी अच्छी खातिर कर के इस बगीचे में ठहरा देना तथा पाट पाटला व संथारा के लिये घास वगैरह की आमंत्रण करना । वल्पपश्चात आकर हमको खबर देना । बाद प्रधान अपने मकान पर गया और राजा को सब हाल सुना दिया जो कि सावत्थी नगरी में कर के आया था। प्रधान चित्त ने नगरी के अच्छे २ मनुष्य थे उनको भी यह शुभ समाचार सुना दिये कि यहाँ केशीश्रमणाचार्य पधारने वाले हैं । इधर केशीश्रमण अपने शिष्य समुदाय के साथ क्रमशः विहार करते हुये श्वे. ताम्बिका पधार गये । बनपालक को खबर मिलते ही बड़े ही सत्कार के साथ उन्हें उद्यान में ठहराया तथा पाट पाटले व घास वगैरह की आमंत्रणाकरी । बाद में नगरी में जा कर चित्त प्रधान को शुभ संदेश दे दिया। चित्त ने बहुत खुश हो कर बनपालक को खूब इनाम दिया । यह खबर सब शहर में पहुँच गई और चित्तादि बहुत से लोग मुनियों को वंदन करने के लिए आये जिन्हों को केशीश्रमण ने धर्मलाभपूर्वक धर्म उपदेश सुनाया जिसको सुन कर लोगों ने जैनधर्म पर श्रद्धा कर के प्राचार्य की भूरि २ प्रशंसा की। ____ चित्तप्रधान ने एक समय केशीश्रमण से प्रार्थना की कि गुरु महाराज आप प्रदेशी राजा को धर्मोपदेश दिलावें । यदि यह राजा सुधर जायगा तो बहुत जीवों का भला होगा, इत्यादि । इस पर प्राचार्य श्री ने कहा हे चित्त ! धर्म सुनने के अयोग्य जीवों के चार लक्षण हैं १- साधु को आता सुन कर दो चार मील सामने न जावे २–मुनि उद्यान में आ गये हों फिर भी दर्शन करने को न जावे ३-मुनि मकान पर आ गये हों तब भी वन्दन न करे। ४-और रास्ता में मुनि मिल जावें फिर भी वन्दन न करे । भला ऐसे मनुष्यों को कैसे धर्म सुनाया जावे ? चित्त ने कहा कि आपका कहना सत्य है परन्तु मैं एक उपाय से राजा प्रदेशी को आपके पास ले श्राऊं, फिर आप मनमाना धर्म सुनाइये १ जहा सुखं __ राजा प्रदेशी के कम्बोज देश से चार अच्छे घोड़े भेंट में पाये थे । एक दिन चित्त ने राजा प्रदेशी को कहा और राजा ने स्वीकृति दे दी अतः प्रधान ने भेंट आये हुये चार घोड़ों के रथ को तैयार करवा कर राजा प्रदेशो को उस रथ में बैठा कर आप स्वयं सारथी बन कर रथ को जंगल में लेगया और इधर उधर खूब घुमाया जिससे राजा प्रदेशी का जी घबराने लगा। चित्त ने कहा कि ये मृगवन उद्यान नजीक है, यदि आपकी आज्ञा हो तो वहाँ चले चलें वहाँ सब तरह का आराम है । बस, रथ को लेकर उद्यान में चले गये और एक कमरे में ठहर गये । पास में ही केशीश्रमण का व्याख्यान हो रहा था और हजारों भक्तगण सुन रहे थे जिसको देख कर राजा प्रदेशी ने चित्त को कहा रे चित्त ! यह जड़ मूढ़ कौन है और इतने जड़ मूढ़ इसका व्याख्यान सुनने वाले कौन हैं ? इस पर चित्त ने कहा कि यह जैन श्रमण हैं अपने धर्म का उपदेश कर रहे हैं इनकी मान्यता जीव और शरीर को अलग अलग मानने की है । ये शास्त्रों के अच्छे ज्ञाता हैं । पृच्छक के प्रश्नों का उत्तर अच्छी युक्ति से देते हैं। यदि आपकी मरजी हो तो आप भी पधारिये । इस पर राजा प्रदेशी प्रधान को साथ लेकर केशीश्रमण के पास गये परन्तु प्रदेशी ने मुनि को वंदन नहीं किया; फिर भी पूंछा कि आप जीव और शरीर को अलग २ मानते हो क्या ? Jain Educacinternational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003211
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages980
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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