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________________ आचार्य केशी श्रमण का जीवन ] [वि० पू० ५५४ वर्ष भगवान वर्द्धमान ने एक वर्ष तक वर्षोदान दिया जिसका प्रमाण प्रति दिन १०८००००० सौनइयों का था, अतः वर्षीदान के बाद ई. स. पूर्व ५६८ वर्ष के मार्गशीर्ष कृष्णा १० के दिन इन्द्रादि श्रसंख्य देव और महाराजाओं के महोत्सव के साथ एकले दीक्षान्त्रत ग्रहण कर लिया । विशेषता यह थी कि जिस दिन प्रभु ने दीक्षा ली उसी दिन श्रभिग्रह ( प्रतिज्ञा ) कर ली कि यदि देव मनुष्य और तिर्यन्च का कोई भी उपसर्ग होगा वह मुझे अपने पूर्व संचित कर्म समझ कर समयक् प्रकार से सहन करना होगा । महापुरुषों का यह भी नियम हुआ करता है कि वे पहिले अपनी आत्मा का सर्व विकास कर लेते हैं तब ही वे दूसरों का कल्याण करने में प्रवृति करते हैं और यह बात है भी ठीक कि जिसने अपना कल्याण कर लिया है वही दूसरों का कल्याण कर सकता है। कहा भी है कि " तन्नाणं तारिया " । भगवान् वर्द्धमान ने जिस दिन दीक्षा ले कर विहार किया उस दिन से ही आप पर उपसर्ग एवं परिसद्दों ने हमला करना प्रारम्भ कर दिया था, एवं बारह वर्षों में अधिक समय श्रापका उपसगों में ही व्यतीत हुआ था । यदि उन सब को लिखा जाय तो एक बड़ा भारी प्रत्थ बन जाय, पर मैं अपने उद्देश्या नुसार संक्षिप्त में कतिपय उदाहरण आपके सामने रख देता हूँ कि भगवान महावीर ने कैसे २ उपसर्गो को सहन किया था । १ - भगवान के दीक्षा समय आपके शरीर पर चन्दनादि सुगन्ध पदार्थों का लेपन किया था जिसके मारे भ्रमरगण प्रभु के शरीर का मांस काट काट खाने लग गये थे, तब दूसरी ओर भगवान के अद्भुत रूप को देख कर कामातुर औरतों ने अनेक प्रकार के हाव-भाव नृत्य विलासादि किये, पर प्रभु ने दोनों पर समभाव ही रखा। २ – एक समय जंगली गोपालकों ने अपने बैलों के कारण प्रभु को अनेक प्रकार के कष्ट पहुँचाये; उस समय शक्रेन्द्र का श्रासन कम्प उठा, अतः इन्द्र ने आकर गोपालकों को सजा देकर दूर हटाया और भगवान की वन्दना स्तुति की, पर प्रभु ने न तो गोपालकों पर द्वेष ही किया न शक्रेन्द्र पर राग ही किया । इतना ही क्यों इन्द्र ने अर्ज की कि प्रभो आपको बड़े २ कष्ट होने वाले हैं, यदि आप आज्ञा फरमावें तो मैं श्रापकी सेवा में रह कर उन कष्टों को निवारण करू ? इस पर प्रभु ने कहा इन्द्र यह न तो हुआ और न होगा कि कोई भी व्यक्ति दूसरों की सहायता से कल्याण करे किया और करेगा श्रर्थात् अपना कल्याण श्राप ही कर सकेगा। अतः आपकी सहायता की मुझे आवश्यकता नहीं है। आ हा, वीर तो सच्चे वीर ही थे । ३ – शूलपाणि यक्ष और संगम नामक अधम देवों के उपसर्ग को सुनते ही कलेजा कांप उठता है । अधम देवों ने प्रभु को इतने घोर कष्ट पहुँचाये कि वे अपनी आयुष्य से ही जीवित रहे, शेष देवों ने तो उपसर्ग करने में कुछ भी उठा न रक्खा । ४-एक समय महावीर जंगल में जा रहे थे तो किसी गोपालक ने कहा कि श्राप किसी दूसरे रास्ते से जाइये, कारण कि इस रास्ते के बीच एक चंडकोषिक सर्प रहता है और उसका विष इतना जहरीला है कि वह जिधर दृष्टि प्रसार करता है उधर ही जीवों को भस्मीभूत बना देता है इत्यादि । प्रभु ने सोचा कि जब उस सर्प में इतनी शक्ति है और उसका दुरुपयोग करता है यदि उसी शक्ति का वह सदुपयोग करने लग जाय तो उसका कल्याण हो सकता है, क्योंकि 'कर्मशूरा सो धर्मे शूरा' बस भगवान उसी रास्ते चले गये और जहां सर्प की बांबी ( बिल ) थी वहां ध्यान लगा दिया। फिर तो था ही क्या ? सर्प ने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.netbrary.org.
SR No.003211
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages980
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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