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________________ वि० पू० ५५४ वर्ष ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास क्रोध में लाल बंबूल होकर प्रभु को काटा, पर दूसरे लोगों को काटने पर खून निकलता है लेकिन भगवान को काटने पर सर्प ने दूध पाया, जिससे सर्प को बड़ा ही आश्चर्य हुआ उस समय प्रभु ने कहा चंडकोषिक ! बुम बुम इतने में तो सर्प को जाति-स्मरण हो आया उसने अपना पूर्व रूप देखा कि मैं पूर्व भव में एक था । क्रोध के मारे मर कर सर्प हुआ हूँ और यहां भी क्रोध के वश हो अन्य जीवों को कष्ट पहुँचा रहा हूँ जिसमें भी महावीर जैसे लोकत्तर पुरुष को, धिक्कार हो मेरे क्रोध को । कृतापराधेऽपि जने, कृपामंथरतारयोः । ईषद्वाष्पादयोर्भद्रं, श्रीवीरजिननेत्रयोः || बस उस सर्प ने शान्त चित्त से प्रतिज्ञा कर ली कि अब मैं किसी को भी तकलीफ नहीं दूंगा, इतना ही क्यों पर मुझे कोई कष्ट देगा तो भी क्षमा करूंगा । सर्प ने अपना मुंह बांबी (बिल) में डाल कर शरीर को भूमि पर रख दिया । प्रभु ने वहां से विहार कर दिया। जब लोगों को मालूम हुआ कि सर्प ने शान्ति धारण कर ली है तो मिष्टान्न पदार्थों से सर्प की पूजा की, उस मिष्टान से वहां चींटियां आ गई और सर्प के शरीर को काट २ कर खाने लगीं तो भी सर्प ने उन पर क्रोध द्वेष नहीं किया अतः सर्प समभावों से मर कर आठवें देवलोक में उत्पन्न हुआ । ५ - एक समय भगवान ने विहार करते हुये एक जंगल में ध्यान लगा दिया था। कोई किसान अपने बैलों को भगवान के पास छोड़ कर कार्यवशात् ग्राम में चला गया था । बलद वहाँ से चले गये, किसान ने वापिस कर देखा तो बलद नहीं मिले। रात्रि भर ढूढ़ता फिरा पर बलद नहीं मिले। फिर सुबह वे बलद स्वयं प्रभु के पास आ गये। किसान ने आकर देखा तो उसको प्रभु पर बहुत गुस्सा आया । उसने खैर की कीलें लाकर प्रभु के कानों में इस कदर ठोक दीं कि कानों के छेद आरपार हो गये । इतना कष्ट होने पर भी भगवान् ने उस गोपाल पर किंचित भी द्वेष नहीं किया अर्थात अपने पूर्वसंचित कर्म समझ कर समभाव से सहन कर लिया इस प्रकार अनेकानेक उपसर्ग एवं परिसह को बड़ी वीरता के साथ सहन करते हुये करीब साढ़े बारह वर्ष निकल गये और साढ़े बारह वर्षों में प्रभु ने तपश्चर्या भी इतनी की कि पूरा एक वर्ष भी आहार पानी नहीं किया होगा । Jain Education International तपश्चर्या के नाम संख्या तप दिन पारणा दिन सर्व दिन छ मासीतप न्यून छ मासी तप चतुर्मासी तप तीन मासी तप अढ़ाई मासी तप दो मासी तप डेढ़ मासी तप एक मासी तप पाक्षीक तप अष्टम तप छट्ट तप १ १ ९ २ २ ६ २ १२ ७२ १२ २२९ १८० १७५ १०८० १८० १५० ३६० ९० ३६० १०८० ३६ ४५८ ४१४९ , 9 १२ ७२ १२ २२९ ३४८ For Private & Personal Use Only १८१ १७६ १०८९ १८२ १५२ ३६६ ६२ १७२ ११५२ ४८ ६८७ ४४९७ www.jainelibrary.org
SR No.003211
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages980
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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