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वि० पू० ४७० वर्ष ]
[ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास ५-प्राचार्य स्वयंमसूरि आचार्योऽथ च पंचमः सुविदितो नाम्ना तु स्वायंप्रभः, सूरिः सोऽत्रसुतीर्णवान् सरिदिमाँ विद्यां सुविद्याधरः । श्रीमालेतिपुरे चकार नवतिं जैनान् सहस्रं ततः, त्रिभिः खैरथ वाण वेद सहितान् पद्मावती नाम्नि च ॥
चार्य स्वयंप्रभसूरि-आप विद्याधरकुल के नायक थे। अतः अनेक विद्याओं से विभूषित होना स्वभाविक ही था। आपकी दीक्षा प्राचार्य केशीश्रमण के कर कमलों से हुई थी। दीक्षा के पश्चात् आपने जैनागमों का अध्ययन किया तो स्वल्प समय
में शाबोंके पारंगत बन गये । आप अहिंसा धर्म के कट्टर प्रचारक थे। यज्ञवादियों
- से शास्त्रार्थ में अनेक स्थानों पर विजयी हो, आपने वादियों को नत-मस्तक कर दिया था। आपका विहारक्षेत्र पूर्व बंगाल कलिंग वगैरह विस्तृत था। आपके आज्ञावृत्ति साधुओं की संख्या भी अधिक थी कि वे विस्तृत प्रदेश में विहार कर धर्म का जोरों से प्रचार भी किया करते थे।
___ भगवान महावीर के निर्वाण के पश्चात् आपके पट्टधर गणधर सौधर्म और आपके आज्ञावृति हजारों मुनिराज अंग बंग मगधादि प्रदेश में बिहार कर जैनधर्म का प्रचार कर रहे थे । इधर आचार्य स्वयंप्रभसूरि भी अपने मुनियों के परिवार के साथ उसी प्रदेश में भ्रमण किया करते थे एवं दोनों समुदायों में अच्छा प्रेम स्नेह और मेल मिलाप था। एक दूसरे के धर्मकार्य में सहायता एवं अनुमोदन कर जैनधर्म का सितारा चमका रहे थे।
____एक समय का जिक्र है कि प्राचार्य स्वयंप्रभसूरि ने सोचा कि इधर पूर्व में तो बहुत साधु हैं यदि किसी प्रान्त में साधुओं का विहार न हो उस प्रदेश में चल कर जैनधर्म का प्रचार किया जाय तो अधिक लाभ हो सकता है इत्यादि । हाँ, उस समय के साधुत्रों का केवल विचार में ही समय नहीं जाता था पर वे अच्छे कार्यों को शीघ्र ही कार्यरूप में कर बतलाते थे, अतः आचार्यश्री ने ५०० साधुओं को अपने साथ रखने का निश्चय कर लिया और शेष साधुओं के लिये वहाँ ही विचरने की सुन्दर व्यवस्था कर दी।
सूरिजी ने पूर्व से ५०० मुनियों के साथ विहार कर दिया और क्रमशः धर्मप्रचार करते हुये पधार रहे थे, पर उन धर्मशून्य क्षेत्रों में विहार करना एक टेढ़ी खीर थी। कारण, कई प्रदेश तो ऐसे भी थे कि वे जैनश्रमणों के प्राचार व्यवहार से बिलकुल अनभिज्ञ ही थे इतना ही क्यों पर कई लोग उन तपस्वी साधुओं को अनेक प्रकार के कष्ट देने में भी कुछ उठा नहीं रखते थे, पर जिन महात्माओं ने स्वात्मा के साथ जगत के कल्याण की भावना से राजपाट धन सम्पत्ति एवं कुटुम्ब को त्याग कर साधु पद धारण किया था उनके लिये वे भीषण कठिनाइये आत्म-कल्याण में बाधक नहीं पर साधक बन कर उनके उत्साह को और भी बढ़ाती थीं अतः वे महात्मा उन परिसह देने वालों को धर्म उपदेश देकर उनको सन्मार्ग पर लाने की कोशिश किया
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