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________________ ओसवाल जाति की ऐतिहासिकता ] [वि० पू० ४०० वर्ष त्यों २ उनके द्रव्य की पुष्कल वृद्धि होती रहेगी। केवल एक जगाशाह ने ही नहीं पर ऐसे तो सैंकड़ों हजारों उदार दानेश्वरी हुये हैं कि एक धर्म कार्य में लाखों नहीं पर करोड़ों द्रव्य व्यय किया था। वह जमाना तो जैनों के उत्कृष्ट अभ्युदय का था, पर आज गये गुजरे जमाने में भी जैनी लोग धर्म के नाम पर लाखों रुपये व्यय कर रहे हैं। सेठ कर्मचन्द नगीनचंद पाटण वालों के संघ में छः लक्ष, सेठ माणकलाल भाई अहमदाबादवालों के संघ में दश लक्ष, सेठ घारसी पोपटलाल जामनगर वालों के संघ में पांच लक्ष और संघपति पाँचूलालजी वैद्य मेहता फलोदी वालों के संघ में सवा लक्ष रुपये स्वर्च हुए थे। जब हम पाश्चात्य उदार गृहस्थों की ओर देखते हैं तो एक एक व्यकि विद्या प्रचार एवं धर्म प्रचार के लिये करोड़ करोड़ पौंट बात की बात में दे डालते हैं तो उस जमाने में इतना व्यय कर देना कोई आश्चर्य की बात नहीं है। वि० सं० ११५ में उपकेशगच्छ में एक यक्षदेवसूरि नाम के महाप्रभाविक एवं दशपूर्वधर आचार्य हुये हैं जो आर्य बजूस्वामी के समकालीन थे। श्राप सोपारपट्टन में विराजते थे उस समय आर्य वजूसेन अपने नवदीक्षित चन्द्र, नागेन्द्र, निवृति और विद्याधर नामक चार शिष्यों को पढ़ाने के लिये सोपारपट्टण में आये चन्द्रादि चारमुनि किस वंश जति के थे, इस विषय का एक लेख उपाध्याय छगनलाल शान्तिलाल ने आत्मानन्द शताब्दी प्रन्थ के गुजराती विभाग पृष्ठ १०० पर प्रकाशित करवाया है जिसमें लिखा है कि: "आर्य वज्रसेन ने ( उक्कोसिया गोत्रना) चार स्थविरों शिष्यों तरीके हता" ___ उपाध्यायजी यह 'उक्कोसिया' शब्द कहां से लाये होंगे ? यह खास कल्पसूत्र से ही लिया गया है । कारण, उक्केस, उक्केशी, उक्केशिय वंश को ही शायद उक्कोसिया कहा हो तो असंभव भी नहीं है। उक्के शिय और उक्कोसिया एक ही वश एवं गोत्र का नाम हो तो निःशंक होकर कहना चाहिये कि विक्रम की दूसरी शताब्दी में उपकेशवंश के उदार वीरों का मथुरा में विस्तृत परिमाण में अस्तित्व था। ___ जब हम वंशावलियों की ओर देखते हैं तो उपकेशियवंश के बलाहगोत्र बापना गोत्र, चींचटगोत्र श्रेष्टि गोत्र और आदित्यनागादिगोत्र के कई उदार वीरों ने विक्रम की दूसरी तीसरी चौथी शताब्दी में मथुरा, आभापुरी, चंदेरी आदि नगरियों में जैन मन्दिर बनाने के प्रमाण मिलते हैं और यह बात असंभव भी नहीं है क्योंकि वि. पू. ९७ वर्ष अर्थात वीरात् ३७३ वर्षे उपकेशपुर में भगवान महावीर की मूर्ति के वक्षस्थल पर प्रतिष्ठा के समय जो दो प्रन्थिये रह गई थी जिसको छेदन करवाने के लिये टांकी लगाते ही रक्त की धारा बहने लग गई थी अर्थात् बड़ा भारी उत्पात मच गया, उसकी शांति के लिये आचार्य कक्कसूरि की अध्यक्षता में वृहद् शान्ति स्नात्र पूजा पढ़ाई गई थी, उस समय १८ गोत्र वाले धर्मज्ञ लोग स्नात्रिये बने थे, जिसका उल्लेख प्राचीन ग्रंथों में इस प्रकार मिलता है । "तप्तभट्टोबप्पनागर, स्ततःकर्णाट३ गोत्रजः । तुर्यो बलाभ्यो नामाऽपि. श्रीश्रीमालः५पंचमस्तथा। कुलभद्रो मेरिषश्च , विरिहिया हयोऽष्टमः। श्रेष्टि गोत्राण्य मृन्यासन् पक्षे दक्षिण संज्ञ के ॥ सुचिन्तता'ऽऽदित्यनागौर, भूरि भोद्रऽथचिंचटि:५। कुंभट : कान्यकुब्जौऽथ डिडुभाख्योऽष्टमोऽपिच।। तथाऽन्यः श्रेष्टि ९ गोत्रोयो, महावीरस्य वामतः । नव तिष्ठन्ति गोत्राणि, पंचामृत महोत्सवे ॥ ___ "उपकेश गच्छ चरित्र" इसमें ९ गोत्र वाले प्रभु प्रतिमा के डायें और ९ स्नात्रिये जीमणी ओर पूजापा लेकर खड़ा होना लिखा है Jain Education International For Private & Personal Use Only www. g ary.org
SR No.003211
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages980
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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