________________
वि० पू० ४०० वष ]
[ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास
जब कि वि०पू० एक शताब्दी में १८ गोत्र केवल पूजा में स्नात्रिये हुये थे तो संभव है कि इनके अलावा भी उपकेशपुर में तथा अन्य नगरों में और भी कई गोत्र होंगे परन्तु उन्हें जानने के लिये हमारे पास इस समय कोई साधन नहीं है फिर भी हम यह तो दावे के साथ कह सकते हैं कि विक्रम की दूसरी तीसरी चौथी शताब्दी में उपकेशवंश के वीरों ने अनेक धर्म कार्य किये थे जो वंशावलियों में आज भी उपलब्ध होते हैं।
इत्यादि प्रमाणों से हेमवन्त पट्टावली विक्रम की दूसरी शताब्दी में लिखी गई हो तो उस समय ओसवाल वंश शिरोमणि पोलाक श्रावक के होने में सन्देह करने की कोई बात नहीं है । अब हम आगे चल कर और पट्टावलिये उद्धृत कर देते हैं कि जिससे हेमवन्त पट्टावली पर और भी प्रकाश पड़े। - २-उपकेशगच्छीय पट्टावलियादि ग्रन्थ
अन्यदा स्वयंप्रभसूरि देशनाँ ददाताँ उपरि रत्नचूड़ विद्याधरो नंदीश्वरे गच्छन् तत्र विमानः स्तंभितः। x गुरुणा लाभंज्ञात्वा तस्मैदीक्षादत्ता । क्रमेणद्वादशाङ्ग चतुर्दश पूर्वी बभूव,गुरुणा स्वपदे स्थापितः श्रीमद् वीरजिनेश्वरात् द्वपंचाशतवर्षआचार्यपदे स्थापितः पंचशतसाधुभिः सह धराँविचरति x तत्र श्रीमद्रत्नप्रभसूरि पंचसयाशिष्य समेत लुणद्रही समायति x मासकल्प अरण्येस्थिता x सपादलक्षश्रावकानाँ प्रतिबोधकारक x प्रचुराजनाः श्रावकत्वः प्रतिपन्ना। क्रमेण श्रीरत्नप्रभाचार्य वीरात् ८४ वर्षे स्वर्गगत :
उपकेशगच्छ पट्टावली १८४ एवं प्रबोध्यतां देवीं सर्वत्र विहरन् प्रभुः । सपादलक्ष श्राद्धानामधिकंप्रत्यबोधयत् ॥
उमकेशगच्छ चरित्र श्रीमहावीरनिर्वाणाद द्विपंचाशति वत्सरे । गुरोः सूरिपदं प्राप्य ततोऽष्टादशहायनैः ।। ऊकेश-कोरण्टकयोः पुरयोस्त्रिशला भुवः। जिनस्य विम्वे संस्थाप्य चामुण्डाँ प्रतिबोध्य च ॥ सपादलक्षमधिकश्रद्धानाँ प्रतिबोध्य च । चारित्रं निरतीचारं पालयित्वा यथोदितम् ॥
नाभिनन्दन जिनोद्धार पृष्ट ४५ रयणप्पभस्व रिहिं उएशपुरे थप्पिओ उएसवंसं, संठविओ महावीरं वीरनिव्वाणगओ चुल्लासी वरिसेहि सत्तुज्जे सग्ग संपत्तो तस्स पट्टवर जक्खदेवों जक्ख पडिबुद्धो गयो सिन्ध भूमिओ जत्थ राव रुद्दाट पुत्त कक्काइजिणधम्मे थिरिकओ ॥
भगवान महावीर के मंदिर की प्रतिष्ठा के समय के विषय में देखियेयत्रास्ते वीरनिर्वाणत्सप्तत्यावत्सरैर्गतैः । श्री मद्रत्नप्रभाचायः, स्थापितं वीर मंदिरम् ॥
"नाभिनन्दन जिनोद्वार" उपकेशे च कोरंटे, तुल्यं वीर बिम्बयोः । प्रतिष्ठा निर्मिता शक्तया, श्री रत्नप्रभसूरिभिः ॥
"उपकेरागच्छ पट्टावली"
उपकेशगच्छ प्रबन्ध हस्त लिखित
१५२ Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org