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________________ वि० पू० ५५४ वर्ष ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास राज समृद्धशाली बनता गया। धन-धान्य रत्न सुवर्ण और राज की खूब वृद्धि होने लगी। गर्भ के प्रभाव से रानी त्रिसला देवी को अच्छे २ दोहले (मनोरथ) होने लगे जिसको राजा सिद्धार्थ ने बड़े ही हर्ष के साथ पूर्ण किये । क्रमशः चैत्रशुक्लत्रयोदशी के दिन की रात्रि समय महावीर का जन्म हुआ। कुदरत से ही सब गृह' उच्च स्थान पर आ गये जो ऐसे पुरुष के लिये आना चाहिये थे। वह समय तीन लोक के जीवों के लिये बड़े ही आनन्द का था । नरकादि के जीवों को भी उस समय शान्ति मिली थी। उसी रात्रि में इन्द्रादि देवों ने भगवान को मेरुशिखर पर ले जाकर प्रभु का स्नात्र महोत्सव किया । तदनन्तर प्रभात होते ही राजा सिद्धार्थ ने जन्ममहोत्सव खूब समारोह से मनाया । विशेषता यह थी कि सौ हजार और लक्ष दिनार व्यय कर जिन मन्दिरों में पूजा रचवाई गई थी, क्योंकि राजा सिद्धार्थ और रानी त्रिसला भगवान पार्श्वनाथ संतानियों के श्रावक थे और श्रावक के घरों में ऐसा मंगलिक कार्य हो तो पहिले प्रभुभक्ति होनी ही चाहिये । इस प्रकार कमशः महोत्सव मनाते हुए बारहवें दिन देशोठन (भोजन करके प्रभु का नाम 'वर्द्धमान' रखा जो यथा नाम तथा गुण था, क्योंकि भगवान के गर्भ में आते ही राजा सिद्धार्थ के राज में धन धान्यादि की अभिवृद्धि हुई थी। __ भगवान जब बाल-क्रीड़ा करते थे उस समय एक देव भगवान की वीरता की परीक्षा करने को पाया पर भगवान के पराक्रम के सामने वह लज्जित हो गया था । तत्पश्चात् माता पिता ने अपने मनोरथ पूर्ण करने को भगवान को विद्यालय में प्रवेश करवाने का महोत्सव किया, पर विचारे अध्यापक के पास इतना ज्ञान कहाँ था कि वह वर्तमान को पढ़ा सके । उस समय इन्द्र का श्रासन विचलित हुआ और उसने स्वर्ग लोक से चल कर ब्राह्मण का रूप धारण कर विद्यालय में आकर राजकुंवर वर्तमान को ऐसे २ प्रश्न पूछे और भगवान ने उन प्रश्नों के उत्तर दिये, जिसको सुन कर विद्यालय का अध्यापक विस्मित हो गया । उन प्रश्नोत्तर का एक ग्रन्थ बन गया जिसका नाम जिनेन्द्र व्याकरण रखा गया था। जब भगवान ने युवकावस्था में पदार्पण किया तो अनेक राजाओं के वहां से विवाह के आमन्त्रण आये। भगवान की इच्छा के न होने पर भी माता पिता के श्राग्रह से राजकन्या जसोदा के साथ राजकुवर वद्धमान का विवाह बड़े ही समारोह से हो गया। हाँ पूर्व संचित जितने कर्म होते हैं वह तो भोगने ही पड़ते हैं और सम्यग्दृष्टि जीवों के भोग भी कर्म निर्जरा का हेतु होता है। भगवान वद्ध मान ने माता के गर्भ में ही दीक्षा की भावना कर ली थी, पर साथ में यह नियम कर लिया था कि जब तक माता पिता जीवित रहें वहाँ तक मैं दीक्षा नहीं लूंगा, इसका कारण मातो पिता का पुत्र प्रति अनुराग ही था । जब भगवान की उम्र २८ साल की हुई तो राजा सिद्धार्थ और रानी त्रिसलादेवी का स्वर्गवास हो गया। वर्द्धमान का अभिग्रह पूर्ण हो गया तो वृद्धभ्राता नन्दीवर्द्धन से कहा कि मैं दीक्षा लूंगा, इसमें आपकी अनुमति होनी चाहिये । वृद्धभ्राता ने कहा वीर ! अभी तो मेरे माता पिता का वियोग हुआ है और जो आधार है वह तुम पर ही है कुछ असो अभी तुम ठहरो; अतः वृद्धभ्राता के कहने से दो वर्ष और संसार में रहना स्वीकार किया। जब एक वर्ष व्यतीत हुआ तो लौकान्तिक देवों ने आकर प्रार्थना की कि प्रभो! विश्व में मिथ्यात्व का जोर अपनी चरम सीमा तक पहुँच गया है । अतः श्राप दीक्षा लेकर जगत का उद्धार करावें। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003211
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages980
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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