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________________ [५० ] चन्द्र और श्री कृष्ण की कल्पना प्राचीनकाल की अवश्थ है । पर जब भ० रामचन्द्र और श्रीकृष्ण के समय की तुलना कर के देखा जाय तो पाठकों को विदित हो जायगा कि उक्त दोनों नरेश जैनधर्म के परमोपासक ही थे जैनों के प्राचीन एवं मूल श्रागमों में इन दोनों का उल्लेख मिलता है जिसमें भी श्रीकृष्ण तो खास जैनों के बाईसवें तीर्थङ्कर नेमिनाथ के भाई थे वे जैनधर्म के उपासक एवं प्रचारक हों इसमें आश्चर्य की बात ही क्या हो सकती है अस्तु पुराणकारों की मान्यता है कि म० रामचन्द्र द्वापर के अन्त में हुए जिसको करीब ५०००० वर्ष हुए हैं। तथा श्रीकृष्ण त्रेतायुग के अन्त में हुए जिसको करीब साधिक ५००० वर्ष हुए । साथ में यह भी लिखा है कि भ० रामचन्द्र के पिता राजा दशरथ की आयु ६०००० वर्ष की थी और भ० रामचन्द्रजी ने ११००० वर्ष अयोध्या में राज किया था। पाठक स्वयं सोच सकते हैं कि ५०००० वर्ष पूर्व ६०००० वर्ष का आयु होना कैसे संभव हो सकता है जब कि दाई हजार वर्ष पूर्व भ० महावीर और महात्मा बुद्ध हुये जिनका श्रायु ७२-८० वर्ष का था तथापि हम उस समय औसत आयु १०० वर्ष की समझ ले तो उसके पूर्व २५०० वर्ष में मनुष्य का कितना आयु होना चाहिये १ डेढ़सी या दोसौ से अधिक नहीं हो सकता है तब ५०.०० वर्षों पूर्व मनुष्यों का ५०.०० या ६०००० वर्षों का आयुष्य होना सर्वथा असंभव ही है जब जैन शास्त्रकारों ने भरामचन्द्र को तीर्थकर मुनिसुव्रत के शासन में होना बतलाया हैं जिसका समय करीब ११८७००० वर्ष पूर्व का है इस हालत में भ. रामचन्द्र ने अयोध्या में ११००० वर्ष राज किया हो तो असंभव नैसी कोई बात नहीं है। इसी प्रकार श्रीकृष्ण का समय भी करीब ८७००० वर्षों का जैनों ने माना है और ८७००० वर्षों पूर्व श्रीकृष्ण का १००० वर्ष का आयुष्य होना ठीक संभव हो सकता है उपरोक्त प्रमाणों से भ० ऋषभदेव रामचन्द्र और श्रीकृष्ण जैनधर्म के ही महापुरुष हुए हैं जब इन्हों की ख्याति बहुत प्रसरित हो गई तब पुराणकारों ने जैनों की कथायें लेकर पुराणों में दाखिल कर उन महापुरुषों को वैदिकधर्म मानने वाले लिख दिये खैर पूण्य पुरुष तो सब के लिये पूजनीय ही होते हैं पर मैंने यहां पर वास्तव सत्य क्या है इसके लिये संक्षिप्त उल्लेख कर दिया है।। ४-बीसवें तीर्थकर मुनिसुव्रत के शासन में भ० रामचन्द्र लक्ष्मण और रावण हुए जिनका विस्तृत वर्णन पद्मचरित्र एवं त्रिषष्टसिलाग पुरुष चरित्र में है उसमें रावण के विषय में लोग रावण के दशमुख होना कहते हैं पर वास्तव में बात ऐसी नहीं है जैनशास्त्रकार लिखते हैं कि रावण के पूर्वजों से उनके वहाँ नौमाणक का एक हार था वह इतना बड़ा और वजनदार था कि साधारण मनुष्य उसको उठाकर गला में पहन ही नहीं सकता था पर रावण इतना शक्तिशाली था कि उस हार को अपने गला में पहन लेता था जिससे उन नौमाणकों में रावण के मुँह का प्रतिबिम्ब पड़ने से नौमुख तथा एक रावण का असली मुख एवं देखने वालों को दशमुख दीखता था जिससे लोग कहते थे कि रावण के दशमुख थे । पर वास्तव में रावण के मुख तो एक ही था पर नौमाणक के हार के प्रभाव से दशमुख दिखते थे। ५-बाईसवें तीर्थङ्कर नेमिनाथ के शासन में कृष्ण बलभद्र हुए इन वीरों का चरित्र भी जैनशास्त्रों में विस्तार से लिखा गया है । जैनशास्त्रों के अनुसार श्रीकृष्ण भविष्य में अर्थात् श्रावती चौबीसी में अमाम नाम का बारहवां तीर्थकर होगा अतः जैनधर्म में श्रीकृष्ण के जीव का उतना ही उच्चासन है कि जितना (१) चतुरंग समायुक्तं मया सह च तं नया । षष्टि वर्ष सहस्राणि, जातस्य मम कौशिक ।। (बा० स० का० १ सर्ग २०) (२) दश वर्ष सहस्राणि, दश वर्ष शतानि च । रामो राज्य मुपासित्वा ब्रह्मलोक प्रयास्यति ॥ (बा. रा.बालकाण्ड सर्ग: श्लोक ९०) Jain Education International For Private & Personal use on w.jarrelibrary.org
SR No.003211
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages980
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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