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[४ ] २-भ० अजितनाथ के शासन में दूसरा सागर नामका चक्रवर्ति हुआ उनके ६०००० पुत्र थे जिसमें मन्हूकुमार ने अष्टापदतीर्थ रक्षार्थ पर्वत के चारों ओर खाई खोदी जिसमें नीचे रहने वाले नागकुमार जाति के देवों को तकलीफ होने लगी उन्होंने रोका भी पर कुँवरों ने गंगा नदी से एक नहर लाकर उन खाई में डालदी इस हालत में देवताओं ने उन ६०००० पुत्रों को एक ही साथ में बालकर भस्म कर दिये जिसके वैराग्य से चक्रवर्ति सागर ने दीक्षा स्वीकार करली।
३-भगवान ऋषभदेव प्रथम तीर्थकर ।
जैनधर्म के जम्बुद्वीपपन्नति सूत्र में भ० ऋषभदेव का चरित्र विस्तार से लिखा है और प्राचीन काल से ही जैन ऋषभदेव को प्रथम तीर्थकर मानते आये हैं इतना ही क्यों पर हजारों वर्षों से जैनों में भ० ऋषभदेव की मूर्तियाँ पूजी जाती हैं।
ब्राह्मणों के प्राचीन शास्त्र वेद हैं उन वेदों में अवतार होने का कहीं पर उल्लेख नहीं है पर अर्वाचीन लोगों ने दश अवतारों की! कल्पना की तथा कहीं कहीं दश अवतारों के मन्दिर भी बनाये गये तथा पुराणों में कहीं कहीं दश अवतारों का उल्लेख भी किया है जैसे:
“मत्स्य१ कूर्मो२ बराहश्च३ नरसिंहोऽय४ वामनः५ ।
रामो६ रामश्च७ कृष्णश्च८ बुद्ध९ कल्की१० चेत दशः ॥१॥ अर्थात् मच्छावतार, कच्छा०, सूअर०, नरसिंह, वामन, राम, परशुराम, कृष्ण, बुद्ध और कल्की इस प्रकार दशावतारों की कल्पना की इसमें भी विशेषता यह है कि महात्मा बुद्ध ब्राह्मण धर्म का कट्टर विरोधी होने पर भी उनको अवतारों में स्थान दिया । अस्तु ।
जब पुराणकारों को दशावतार से संतोष नहीं हुआ और जैनों में प्राचीन काल से २४ तीर्थङ्करों की मान्यता को देख उन्होंने भी चौबीस अवतारों की कल्पना कर डाली जिसमें भ० ऋषभदेव को आठवाँ अव. वार मान लिया और जैनशाखों में भ० ऋषभदेव का चरित्र वर्णित था ज्यों का त्यों भागवत पुराण में लिख दिया। भागवत के लिये कई विद्वानों का मत है कि विक्रम की पन्द्रहवी सोलहवीं शताब्दी में किसी वामदेव बंगाली ने भागवत की रचना की है अतः भ० ऋषभदेव के लिये ब्राह्मणों के प्राचीन प्रन्थों में उल्लेख नहीं है। दूसरा जब हिन्दू भाई ऋषभदेव को सृष्टि का आदि करता भी मानते हैं फिर वे पाठवा अवतार पन ही कैसे सकते ? कारण ऋषभ को आठवां अवतार माना जाय तो उनके पूर्व सात अवतार और भी हुए होंगे और सात अवतारों के समय सृष्टि का अस्तित्व अवश्य ही था फिर ऋषभ को सृष्टि का आदि मानना परस्पर विरुद्ध ही है इत्यादि प्रमाणों से स्पष्ट हो जाता है कि भ० ऋषभदेव के विषय में पुराणकारों ने जैन मान्यता का ही अनकरण किया है अर्थात् जैनशास्त्रों के अन्दर से ऋषभदेव की कथा को लेकर भागवत पुराण में ऋषभावतार की कथा गड़ डाली है।
जैसे पुराणकारों ने भ० ऋषभदेव के लिये कल्पित कथा लिख कर उनको अवतार माना है वैसे ही भ० रामचन्द्र और श्रीकृष्ण के लिये उनको भी अपने अवतारों में स्थान दे दिया है । वास्तव में भ० रामचन्द्र और श्रीकृष्ण जैन नरेश थे परन्तु पुराणकारों ने ऋषभदेव को श्राठवां अवतार की कल्पना की है इससे राम
... भागवत एक उत्कर्ष रसपूर्ण ग्रंथ छे ए सहकई ने मान्य छे परन्तु आपणे धारिये छेए एटलो ते प्राचीन नथी छगभग ५०० वर्ष पहिले बंगालमा मुसलमानांना राज्य ना वखत में थई थयेला बोपदेव नामना विद्वान ए ग्रंथ बनान्यो छे
कृष्णभक्ति नो प्रचार आ ग्रंथ थी वध्यो छे भा खरू । परन्तु ए इतिहास नथी भा बात ध्यान में राखवी गोइये" Jain Education Namational
e & "बहुगदेवी कुल पार्योना तेहवार नो इतिहास ५० १५०"