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आचार्य ककरि का जीवन ]
[ओसवाल संवत् ६३५-६५०
राजा ने कहा देवसैन ! तुम्हारा पिता तो आज मंत्री पद का इस्तीफा दे रहा और है कहता है कि मैं संसार को छोड़ देगा । मुझे तो इस वातका बड़ा ही आश्चर्य होता है
देवसैन-नहों हजूर ! पिताजी के सिर पर कितना कार्य रहा हुआ हैं। अभी तो मेरे छोटे भाई बुद्धसैन का विवाह का कार्य चल रहा है ।
राजा-भला तू पूछ कर तो देख यह क्या कहता है । देवसैन-पधारिये, पारणा का टाइम हो गया है । नागसैन-हजूर मैं जाता हूँ। राजा-हाँ, तुम जाओ पर तेरा इस्तीफा मंजूर नहीं किया जाता है । मंत्री-यह आपको मर्जी है पर मैं तो अब न इस पद पर रहूँगा और न मेरा यहाँ आना ही बनेगा।
देवसैन ने सुना तो उसके दिल में कुछ शंका हुई कि यह क्या बात है । खैर, पिताजी को लेकर घर पर आया । मंत्री ने परमेश्वर की पूजा कर पारणा किया। इतने में तो सब कुटुम्ब में यह बात फैल गई कि मंत्रीश्वर ने अपने पद से इस्तीफा दे दिया है और सूरिजी के पास दीक्षा लेने को तैयार है पर स्वार्थ के सरदार कुटुम्ब वाले यह कब चाहते थे कि हमारे शिरनायक हमको छोड़ कर दीक्षा ले लें । उन्होंने बहुत कुछ कहा आखिर में कहा बुद्धसैन का विवाह प्रारम्भ किया है तो यह तो आप अपने हाथों से करलें।
मंत्री ने कहा कि मैं तो अपने किये हुये विवाह को भी छोड़ता हूँ तो मैं किसका विवाह करूं । मैं तो आज ही सूरिजी के पास दीक्षा ले लूगा इत्यादि ।
आखिर जाना और मरना किसके कहने से रुक सकता है । राजा ने देवसैन को मंत्री पद दिया और देवसैन ने अपने पिता की दीक्षा का बड़ा शानदार महोत्सव किया । सूरिजी के प्रभावशाली उपदेश से मंत्री के साथ कई १५ नरनारी दीक्षा लेने को तैयार हुये और सूरिजी ने उन भावुकों को विधि विधान से भगवती जैनदीक्षा प्रदान की। और नागसैन का नाम निधानकलस रख दिया।
मुनि निधानकलस की योग्यता देख सूरिजी ने श्राघाट नगर में उपाध्याय पद और उपकेशपुर में सूरि पद से विभूषित कर आपका नाम ककसूरि रख दिया था। ककसूरि इस नाम में ऐसा चमत्कार रहा हुआ है कि सूरि पद प्रतिष्ठित होते ही आप एक विजयी सुभट की भांति जैनधर्म के प्रचार के निमित्त जुट गये। पूर्व जमाने में आचार्य पद एक महत्व का पद समझा जाता था जिसको यह पद अर्पण किया जाता था पहिले खूब परीक्षा की जाती थी तथा पद लेने वाला पहिले इस पद की जिम्मेदारी को ठीक तौर पर समझ लेता था और अपना कर्तव्य करने में वह सदैव तत्पर रहता था तब ही वह पदवी शोभायमान होती थी।
श्राचार्य कक्कसूरि ने अपने शिष्यों के साथ उपकेशपुर नगर से विहार कर दिया और मरुधर में सर्वत्र भ्रमण कर जनता को धर्मोपदेश देकर सत्पथ पर लाने का खूब प्रयत्न किया। और उसमें आपको सफलता भी खूब ही मिली। सच्चे दिल और उज्वल भावना से किया हुआ कार्य शीघ्र ही होता है।
एक समय सूरिजी विहार करते हुये जा रहे थे तो एक अटवी में बहुत से लोग एकत्र हुये थे, वे केवल हलकी जातियों के ही नहीं पर उनमें ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य भी शामिल थे। हां जैनाचार्यों के प्रयत्न से मरुधर में सर्वत्र अहिंसा धर्म का प्रचार हो गया था तथापि कई-कई स्थानों में उन हिंसकों का अस्तित्व मंत्री नागसेन की दीक्षा
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