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________________ आचार्य कक्कसरि का जीवन | [ओसवाल सं० ११२ को कहा कि मेरी लगाई हुई मुद्रा को तोड़ना नहीं और तुम सब भोजन कर पानी पी लो। पुत्रों ने सोचा कि पिताजी ने यह कैसा भोजन करने का आदेश दिया। बिना मुद्रा तोड़े कैसे भोजन करें ? इत्यादि विचार करते हुए निराश हो कमरा से निकल गए केवल एक श्रेणिक ही रह गया । श्रेणिक ने सोचा कि पिताजी ने जो कुछ किया, वह सोच समम के ही किया होगा। अतः इसका कोई उपाय सोचना चाहिये ! बस ! श्रेणिक ने उन वंश की छावे को हाथ से पकड़ कर इधर उधर जोर से हिलाई कि अन्दर के खाण्ड खाजा टूट २ कर कपड़े पर गिरने गे जिसको श्रेणिक ने खा लिया । इसके बाद पानी के घड़ों पर वारीक मलमल के कपड़े लगा दिये कि जिसकी सई से कपड़ा गीला हो जाये । उसको निचोड़ २ कर पानी भी पी लिया । बाद में सब भाई मिलकर राजा के पास गये। ९९ पुत्रों ने तो कहा कि हम तो सब भूखे प्यासे हैं । कारण, आपने हुक्म दिया था कि मुद्रा न तोड़ना और भोजन करके पानी पी लेना। मगर जब कि उन पर मुद्रा लगी हुई है तो हम किस तरह भोजन करे या पानी पी सकते हैं। इसके बाद श्रोणिक ने अपना हाल कहा, इस पर रा प्रसन्न हुआ पर ऊपर से उपालभ्या दिया कि तुमने सब खाजे क्यो तोड़ डाले ? २-एक समय राजा अपने पुत्रों को भोजन करवाने के लिये अच्छा २ भोजन थालों में पुरुसवाकर एक कमरे में रख कर सबको कहा-जाओ भोजन करो। जब सब पुत्र भोजन करने को बैठे ही थे कि राजा ने ऐसे कुत्तों को छोड़ा कि जिन्हों की भूस भूसाट के सामने एक श्रोणिक के अलावा सब कुवर डर कर भाग गये । तब श्रोणिक ने दूसरे भाइयों के थाल अपनी ओर खींच कर उनका भोजन कुत्तों को डालता गया और आप आपना भोजन करता गया। भोजन करने के बाद सब कुवर मिल कर राजा के पास आये और अपना २ हाल कहा। राजा अन्दर से तो श्रोणिक पर प्रसन्न थ। किन्तुऊपर से कहा श्रेणिक ने तो कुत्तों के साथ बेठ कर भोजन किया। ३-एक समय राजा ने महल में अच्छी २ वस्तुएं रखवा कर कुंवरों को कहा कि जाओ जो चीज जिसके हाथ आवेगी मैं तुमको इनाम में दे दूंगा । कुवर दौड़ कर धन, माल, वस्त्र और भूषण अपनो २ रुचि अनुसार ले आये पर श्रेणिक ने एक बजाने की भैरी जिसको वजाने से ६ मास का पुराना रोग चला जाय या ६ मास तक नया रोग न आवे ।उस भैरी अर्थात् बजाने का बाजा उठा लाया सब कुवर गजा के पास आये। जो-जो पदार्थ जिस २ कुवर ने लिये वो उन को इनायत कर दिये पर श्रेणिक से कहा कि क्या तू यह भैरी ही बजाया करेगा इत्यादि । कई प्रकार की परीक्षा कर राजा ने निर्णय कर लिया कि मेरे राज का अधिकारी होने योग्य एक श्रेणिक ही है । परन्तु वह इस देश में रहेगा तो न जाने इर्षा के वशीभूत होकर दूसरा कुवर इसके साथ कुछ कर नहीं डाले ? इस बात को सोच कर एक दिन राजा ने सब कुंवरों को बगीचे में एकत्र किये उसमें श्रेणिक का इस प्रकार अपमान किया कि वो बिना खबर दिये ही परदेश के लिए रवाना हो गया । श्रोणिक जैसा भाग्यशाली, बुद्धिमान था वैसा ही साहसी वीर भी था । वह निडर होकर अपने नगर से निकल गया और चलते २ दूर देश में जा रहा था तो रास्ते में एक धनानाम के सेठ का साथ हो गया। सेठ को देखते ही श्रेणिक ने कहा-मामाजी आप कहां जा मैरी का नाम भंभा अथवा विद्या भी था और वह सब में सारभूत होने से श्रेणिक ने परोपकार को लक्ष में रख कर उसको ही लिया था और इस कारण आप का नाम भंमसार एवं बिम्बसार हो गया। २५७ (क) Jain Education International For Private & Personal Use Only Indlibrary.org
SR No.003211
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages980
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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