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________________ वि० पू० २८८ वर्ष ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास ___ शाह ने प्राचीन भारतवर्ष पु० पहली के पृष्ट २९७ पर लिखा है कि भगवान महावीर के पट्टधर सौधर्माचार्य चम्पानगरी पधारे तब कौणिक ने उसका धूमधाम से अच्छा स्वागत किया। यह स्वागत सौधर्माचार्य का नहीं बल्कि भगवान महावीर का ही था जो जैन सूत्र उबवाइ उपाँग में विस्तार से वर्णन किया है । पर सौधर्माचार्य का इस प्रकार स्वागत का जैन शास्त्रों में कहीं पर उल्लेख नहीं मिलता है। उसी पुस्तक के पृष्ट २९७ पर शाह ने लिखा है कि राजा चटेक और कौणिक का युद्ध ई० सं० पूर्व ५२७ वें वर्ष में हुआ । यह भी ठीक नहीं है, कारण इस युद्ध का सम्बन्ध चम्पा नगरी से है । तब राजा फौणिक ने चम्पा नगरी को अपने राज के ४ वर्ष बाद राजधानी बनाई थी। ई० सं० पूर्व ५२७ कौणिक ने चम्पा को राजधानी ही नहीं पनाई तो, तब चम्पा नगरी से युद्ध होना कैसे सिद्ध हो सकता है। अर्थात् शाह की लिखी हुई तारीख ठीक नहीं मालूम होती है । उसको फिर किसी समय बतलाया जायगा । शिशुनाग वंश के १० राजाओं का होना लिखा है। उसमें शिशुनाग, काकवर्ण, क्षेमवर्धन और क्षेमजित इन चार राजारों के नाम के सिवाय हम कुछ भी नहीं जानते हैं और न उनके जानने के लिये कोई साधन हो हमारे पास है हाँ, पीछे के ६ राजाओं के वर्णन जानने के लिये जैना शास्त्रों में थोड़े बहुत साधन अवश्य मिलते हैं। ५-- शिशुनाग वंश का पांचवां राजा प्रसेनजित्त हुआ। पहले मगद की राजधानी कुस्थाल नगर में थी प्रसेनजितने व्ययहार गिरि पर्व के ऊचे भाग पर 'गिरिव्रज' नाम से अपनी राजधानी का नगर बसाया गजा प्रसेनजित के १०० पुत्र थे । पर वे केवल बिना परीक्षा बड़े पुत्र को राज दे देना ठीक नही समझ कर अपने पुत्र की परीक्षा करना और उसमें उत्तीर्ण अर्थात राज योग्य एवं सर्व गुण सम्पन्न हो उसको राज देने का निश्चय कर लिया और कई प्रकार से परीक्षा भी की थी-जैसे एक समय राजा ने वंश की छेद्र वाली छाबें मंगवा कर उसमें रूण्ड खाजा और कुछ मिट्टि के घड़ा मंगवा कर उसमें पानी भर कर उन छावें और घड़ों का मुह बंद कर, ऊपर मुद्रकाएं लगादी और एक कमरा में रख कर १०० पुत्रों "तेणी का०२ चंपा नाम नपरी होत्था पुग्न भई चेतिते तत्थेणं चपाए नयरीए कौणिए राया वण्णभो । तत्थेणं चपाए नयरीए सेणियस रणो भज्जा कोणियस्स रणो चुल्लमाउया काली नाम देवी होत्या वणओ जहा नंदा जाव सामातियमाति पाति एक्कारसअंगाई आहीजति" "अन्तगढ़दशा वर्ग ८ बा अ० । पृ० २५ 'तत्येणं चंपाए नथरीए सोणियस्स रष्णो भज्जा कूणियस्स रनों चुक्लभाउया काली नाम देवी होत्था सोमाल जाव सुरुवा । तीसेण कालीए देवीए पुत्ते कालो नाम कुमारे होत्था, सोमाल जाव सुरवे । ततेणं से काले कुमारेअन्नयाकयाई तिहिंदती सहस्सेहिं तिहिं रह सहरसहिं तिहिं आस सहस्सेहि तिहिं मणुय कोडिहिं गरूलवूहे एकारसेमणं खंडेणं कुणिएणं रन्ना सद्धि रद्दमुसले संगाम भोयाए xxx तेणं कालेणं तेणं समएणं समणे भगवं महावीरे समोसरिते, परिसा निग्गाया। ततेणं तीसे कालीए देवी हमी से कहाए लच्छ ठाए समाणीए-अयमेतारूवे भज्झास्थिए जाव समप्पजित्थोए "निरियालिका सूत्र प्रथम वर्ग पु. प्र. पृ. ४-६॥ "चम्पायां कूणिको राजा वभूव तस्य चानुजौ हाल्लविहल्लाभिधानौ भ्रतरौ सेचानकामिधान गन्धहस्तिनि समा रूतौ दिव्यकुण्डल दिव्यवसन विव्यहारविभूषितौ विलसन्तौ दृष्टा पद्मावामघाना कुणिक राजस्यभार्य मत्सरा घन्तिनोऽपहाराय तंप्रेरितावती, तेन तौ तं याचितौ, तौ चतद्भपा शाल्यंनगेर्या स्वकीयमातामहस्य चेटकाभिधानस्य राज्ञोऽन्तिक सहस्तिको सान्तःपुरपरिवारौ गतवन्तौ” -"श्री मागवती सूत्र शतक ७ उ० ९पृ० ३१६ टीका" २५६ Jain Education international For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003211
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages980
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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