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________________ आचार्य रत्नप्रभसूरि का जीवन ] [ ओसवाल संवत् ५१५ लेये मुनि बत्र एक गुफा में ठहर गया । देवता ने वर्षा बन्द कर वणिक का रूप धारण कर बज्र को गोचरी के लए आमंत्रण किया । बालमुनि गुरु श्राज्ञा लेकर गोचरी गया पर उपयोग से जान लिया कि यह देव पिण्ड है इसलिये भिक्षा नहीं ली । अतः देवता ने प्रसन्न हो बन्न के चरणों में वन्दना कर प्रशंसा की। दूसरी बार देवता ने गेवर बना कर बज्र की परीक्षा की पर बन ने अपने उपयोग से गेवर भी नहीं लिए । अतः देवता ने प्रसन्न हो कर बज्र को आकाशगामनी विद्या प्रदान की। एक समय सब साधु गौचरी गये थे । बन अकेलाही था उसने सब साधुओंकी उपाधी क्रमशः रखकर आप आगम की वाचना देनी शुरू की । इतने में आर्य सिंहगिरि बाहर जाकर आ रहे थे उन्होंने आगम के पाठ सुन कर विचार किया कि भिक्षा के समय मुनियों को आगमों की बाचना कौन दे रहा है ? जब उन्होंने उपयोग से मुनि बज्र को जाना तो बड़ा ही हर्ष हुआ। वे निशीही पूर्वक मकान में आये तो बन ने साधुओं की उपधि यथा स्थान रख दी। बाद दूसरे दिन आर्य सिंहगिरि बिहार करने लगे तो मुनियों ने कहा कि हमको बाचना कौन देगा ? इस पर प्राचार्यश्री ने कहा कि तुमको वाचना बज्र मुनि देगा। मुनियों ने स्वीकार कर लिया । अतः बज्र मुनि सब मुनियों को इस कदर की वाचना देने लगे कि साधारण बुद्धि वाले भी सुख पूर्वक समझने लग गये । अतः साधुओं कों वाचना के लिए अच्छा संतोष हो रहा था। कई दिन बाद गुरु महाराज वापिस आये और मुनियों को वाचना के लिये पूछा तो उन्होंने कहा कि हमको अच्छी वाचना मिलती है और सदैव के लिये हमारे वाचनाचार्य मुनि बज्र ही हों । आचार्यश्री ने कहा कि मैं इस लिये ही बाहर गया था। बाद प्रसन्नता पूर्वक आचार्यश्री दशपुर नगर आये और मुनि बत्र को आवन्ती नगरी की ओर भद्रगुप्त सूरि के पास शेष ज्ञान पढ़ने के लिये भेजा दिया । बत्र मुनि क्रमशः आवंति पहुँच गया पर समय हो जाने पर उस रात्रि में नगर के बाहर ही ठहर गये। तत्राप्य मानयन्ती सा गता राज्ञः पुरस्तदा । यतयश्च समाहूगाः संधेन सह भूभता ॥८॥ ततो माता प्रथमतोऽनुज्ञाता तत्र भूभृता । क्रीडनैर्भक्ष्यभोज्यैश्च मधुरैः सा न्यमंत्रयत् ॥४५॥ सते तथारिस्थिते राज्ञानुज्ञातो जनको मुनिः । रजोहरणनुद्यस्य जगादानपवादगीः ॥८६॥ ततो जयजयारावो मङ्गलध्वनिपूर्वकम् । समस्ततूर्यनादोर्जि सद्यः समनि स्फुटः ॥ एषणात्रितेयचेग्ययुक्तो भुक्तावनादतः तत्रबजोययोप्राप्य गुरोरनुमतिं ततः ॥१०३॥ द्रव्य क्षेत्र काल भावैरूपयोगं ददौचसः । द्रव्य कुष्माण्ड पाकादि क्षेत्र देशश्चामालवा ॥ १०४॥ कालोग्रीष्मस्तथाभावे विचार्ये निमिषा अमी, अस्पृष्ट भूक्रमान्यासा अम्लान कुसमस्रज ॥१०५॥ चरित्रिणां ततो देवपिण्डो न कलप्यते नहि । निषिद्धा उपयोगेन तस्य हर्ष परं ययुः ॥६०६॥ X - अन्यत्र विहरंतश्चान्यदा गीष्मतु मध्यतः । प्राग्वदेव सुरास्तेऽमुघृतपूरैन्य॑मन्त्रयन् ॥१०॥ वज्र तत्रापि नियूंढे विद्यां ते व्योमगामिनीम् । ददुर्न दुर्लभं किंचित्सद्भग्यानां हि तादृशाम् ॥ १०९॥ बाह्यभूमौ प्रयतिषु पूज्येष्वथ परेद्यवि । सदेषणोपमुक्त पु गीतार्थेषु च गोचरम् ॥११०॥ अवकाशं च बाल्यस्य ददच्चापलतस्तदा । सर्वेषामुपधी मग्राहं भूमौ निवेश्य च ॥११॥ वाचनां प्रददौ वज्रः श्रुतस्कन्धवजस्य सः । प्रत्येकं गुरुवक्रेण कथितस्यमहोद्यमात् ॥१२॥ श्रीमान्सिहगिरिश्चात्रान्तरे वसतिसन्निधौ । आययौ गर्जितौर्जित्यं शब्दं तस्याश्र्णोच्च सः ॥११३॥ दध्यौ किं यतयः प्राप्ताः स्वाध्यायैः पालयन्ति माम् ।निश्चित्यैकस्य शब्दं ते सोषतो बभुः ॥११॥ प्र० च० X dain Ed आचार्य बज्रसूरि का ज्ञानाभ्यास-] For Private & Personal use Only www४८५ary.org
SR No.003211
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages980
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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