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चार्य रत्नप्रभसूरि ( चतुर्थे ) का जीवन ]
[ ओसवाल संवत् ५६६-६१८ २१ प्राचार्य श्रीरत्नप्रभसूरि (चतुर्थ )
धृत्वा पारस द्रव्य राशिमसको वंशावतंसोऽभवत् । यो रत्नप्रभसूरि नाम विदितो योगेश्वरो विद्यया ॥ रव्यातो लोकसमूह आत्मवशता सामर्थ्यभारेण च । लोकान् जैन मतेतरान् विहितवान् जैनान् प्रभापुंजयुक् ॥
चार्य श्री रत्नप्रभसूरि भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा में आप चतुर्थ रत्नप्रभसूरि थे। वादिरूप १ चर्तुति के अन्त करने में श्राप चक्रवर्ति सदृश विजयी थे। आपश्री का पवित्र जीवन परम
रहस्यमय था। आप हंसावली नगरी के उपकेशवंशीय श्रष्ठिवर्य्य शाह जसा की धर्म परायण सुलक्षणा भार्या पातोली के प्यारे पुत्र रत्न थे। शाहजसा एक साधारणस्थिति का गृहस्थ था पर आप सकुटुम्ब धर्मकरनी में इतना संलग्न थे कि जितना मिले उसमें संतोष कर अहिर्निश धर्म कार्य करने में ही अपना समय व्यतीत करते थे। बस इनके जैसा दुनियां में
कोई सुखी एवं संतोषी ही नहीं है। प्राचार्य श्री सिद्धसूरि के अनुयायी वाचक श्री धर्मदेव वृद्धावस्था के कारण हंसावली में ही स्थिरवास कर रहते थे। शाह जसा आपका परमभक्त एवं श्रद्धासम्पन्न श्रावक था जसा ने वाचकजी की विनयभक्ति करके जैनधर्म के तत्व ज्ञानमय सिद्धान्त का खूब अभ्यास किया अपनी नित्यक्रिया सामायिक प्रतिक्रमण के अलवा जीवाजीव का स्वरूप और कर्मसिद्धान्त का तो आप इतना मर्मज्ञ हो गया कि उसको हटाने के लिये खूब ही प्रयत्न किया करते थे पर पूर्वजन्म की अन्तराय भी इतनी जबरदस्त थी कि जसा अपने कुटुम्ब का पालनपोषण बड़ी मुश्किल से करता था फिर भी वह पुद्गलिक दुःख सुखों को एक कर्मों का खेल ही समझता था पर कहा है कि दुःख के अन्त में सुख और सुख के अन्त में दुःख हुआ ही करता है कारण, कृष्ण पक्ष की प्रतिपदा से अमावस्या तक अंधेरा बढ़ता ही जाता है पर आखिर तो शुल्कपक्ष आही जाता है अतः कृष्ण पक्ष का भी अन्त है । जब शुल्क पक्ष की प्रतिपदा से उद्योत बढ़ता-बढ़ता पूर्णिमा तक पूर्णोद्योत हो जाता है तब फिर चक्र के अनुसार पुनः कृष्ण पक्ष अाही जाता है और ऐसे अनंताकाल चक्र व्यतीत हो गया और भविष्य में होगा । इस बात को शाह जसा अच्छी तरह समझ गया था। कहा है कि श्रद्धा का मूल कारण ज्ञान ही है और ज्ञान से ही श्रद्धा दृढ़ मजबूत रहती है। शाह जसा भी इसी कोटि का मनुष्य था कि उसका हाड़ और हाड़ की मींजी जैनधर्म में रंगी हुई थी। जैसे शाह जसा धर्मज्ञ था वैसे ही उसकी पत्नी पतोली भी धर्म करणी में अहर्निश तत्पर रहती थी। इतना ही क्यों पर जसा का सब कुटुम्ब ही धर्म परिवार कहा जाता था। बात भी ठीक है कि जैसे मुख्य पुरुष होता है वैसे ही उनका
परिवार भी होता है। Jain Enाह जसा की परिस्थिति ]
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