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वि० सं० १९९-२१८ वर्ष ]
[ भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास
सेठानी पतोली एक समय अर्द्ध निन्द्रावस्था में सो रही थी तो वह स्वप्न में क्या देखती है कि एक सफेद हरती गगन से उतारता हुआ मुँह में प्रवेश करता है इतने में तो माता जाग उठी और अपने स्वप्न को सावधानी से याद कर अपने पतिदेव को स्वप्ने का सब हाल कहा पतिदेव ने कहा प्रिये! त भाग्यशालिनी है और इस शुभ स्वप्न से ज्ञात होता है कि तेरे उदर में कोई भाग्यशाली जीव अवतीर्ण हुआ है इत्यादि जिसको श्रवण कर धर्मप्रिय पातोली ने बहुत हर्ष मनाया ! बस मानों कि शाह जसा के पुष्ट अन्तगय कर्म को तोड़ कर नष्ट करने को ही स्वर्ग से एक सुभट आया हो।
इधर शाह जसा बरसात के अन्त में जंगल गया था वहाँ उसने एक पारस का खण्ड देखा। जसा शास्त्रों का ज्ञाता था पारस को पहचान लिया पर अदत के भय से उसे नहीं लिया पर जब जसा दो चार कदम आगे बढ़ा तो एक दृश्य अावाज हुई कि जसा यह पारस तेरी तकदीर में लिखा हुआ है मैं तुझे अर्पण करता हूँ तू इसे ले जाकर इसका सदुपयोग करना इत्यादि।
शाह जसा ने सोचा कि यह अदृश्य प्रेरणा करने वाला कौन होगा और यदि मैं इस पारस को ले भी लूँ तो मेरे पीछे अनेक प्रकार की उपाधियाँ बढ़ जायगी । एवं धर्म कार्य में अन्तराय पड़ेगी। अतः जसा ने कहा कि इस पारस को श्राप किसी योग्य पुरुष को ही दीजिये । जवाब मिला कि इस कार्य के लिये जसा तू ही योग्य है तब उस अदृश्य व्यक्ति के आग्रह से शाह जसा ने प्रणामपूर्वक पारस को ग्रहण कर अपने मकान पर भागया इधर पातोली ने अपने पतिदेव को कहा कि आज रात्रि में मुझे और भी स्वप्न आया जिसमें मैंने देखा है कि आपको बड़ा भारी लाभ हुआ और अपना घर धन से भर गया । इस का क्या अर्थ होगा ? शाह जसा ने कहा भद्रे ! तू बड़ी पुन्यवती है और तेरा स्वप्न सफल भी होगया है । तेरे और तेरे गम के प्रभाव से आज मुझे पारस मिला है । देखो यह पारस मैं ले आया हूँ
बस, फिर तो था ही क्या शाह जसा ने उस पारस से पुष्कल सुवर्ण बना लिया। सबसे पहिले तो उसने एक विशाल जिनमन्दिर बनाना शुरू कर दिया अब तो जसा खर्च करने में कमी ही क्यों रक्खें । उस मन्दिर के लिये ९६ अंगुल की सुवर्णमय भगवान महावीर की मर्ति बनाने का निश्चय किया और इस मंदिर में एक करोड़ रुपये खर्च करने का संकल्प भी कर लिया।
इधर पातोलीदेवी ने गर्भ की प्रेरणा से नगर के पूर्व दिशा में जनोपयोगी एक विशाल तालाब बनाना शुरू कर दिया । इसके अलावा भी दम्पति ने कई सुकृत कार्य में खुल्ले दिल से द्रव्य व्यय करने लगे। जिसमें भी साधर्मी भाइयों के लिये तो आपका लक्षविशेष रहता था कारण जसा जानता था कि मनुष्य आर्थिक संकट में जीवन किस प्रकार निकालता है।
इधर देवी पातोली को दोहला उत्पन्न हुआ कि गुरुवर्य आचार्य कछ.सूरिजी महाराज के मुखाविन्द से मैं महाप्रभाविक श्री भगवतीजी सूत्र सुनू। इस दोहले की बात अपने पतिदेव को कही तो शाह जसा के हर्ष का पार नहीं रहा और उसी वक्त अपने पुत्र सालग को कहा कि तुम जाओ सूरिजी महाराज की विनती कर चतुर्मास के लिये यहां लाओ । सालिग ने कहा कि आपकी आज्ञा तो मुझे स्वीकार है पर मेरी राय में यहां के श्रीसंघ की ओर से विनती हो तो और भी अच्छा रहेगा ? शाह जसा के बात जंच गई और तत्काल ही श्रीसंघ को एकत्र किया और कहा कि प्राचार्य श्रीकक्कसूरि को चतुर्मास के लिये विनती की जाय अतः आप स्वीकृति दिरावें । श्रीसंघ ने कहा कि ऐसा हतभाग्य कौन है कि कल्पवृक्ष को अपने घर पर बुलाना ६१२
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