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वि० पू० १२ वर्ष ]
[ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास
१०-दशवां पद में-चरम अचरम का वर्णन है । ११-ग्यारहवां पद में--भाषा का विवरण विस्तार से लिखा है। १२-वारहवां पद में-पांच शरीर के बँधेलगा मुकेलगादि का विस्तार से वर्णन है। १३-तेरहवां पद में - परिणाम अर्थात् जीव परिणाम अजीव परिणाम का वर्णन है । १४-चौदहवें पद में --क्रोधादि चार कषाय के ५२०० भंगों का वर्णन है । १५-पन्द्रहवाँ पद में-पांच भाव इन्द्रियें और आठ द्रव्येन्द्रियों का वर्णन है। १६-सोलहवें पद में-प्रयोग योगों की विचित्रता का अधिकार है। १७-सतरवें पद में-लेश्या छः उद्देश्यों में लेश्याओं का विस्तार है । १८-अठारहवें पद में-कायस्थिति जो एक काया में जीव कहां तक रह सके । १९-उन्नीसवां पद में-दर्शन-दर्शन कितने प्रकार के और उनके लक्षण । २०-वीसवां पद में-अन्तः क्रिया--- कौन सा जीव किस प्रकार अन्त क्रिया करते हैं । २१- इकवीसवां पद में--शरीर अवगाहना का विस्तार से वर्णन किया है । २२-बावीसवां पद में-काइयादि क्रियाओं का वर्णन है। २३.-- तेवीसवां पद में- कर्मों का आबादाकाल कौनसा कर्मबँधने के बाद कितना काल से उदय आवे। २४ - चौवीसवां पद में-कर्म बान्धता हुआ कितना कर्म साथ में बंध सकता है । २५-पंचवीसवां पद में-कर्म बन्धता हुआ कितना कर्मों को वेद सकता है। २६-छबीसवां पद में-कर्म वेदता हुआ जीव कितना कर्म बन्ध करता है। २७-सताबीसवां पद में-कर्म वेदता हुआ कितना कर्म वेदे। २८-अठाबीसवाँ पद में-चौबीस दंडक के जीव आहार किस पुद्गलों का लेते हैं । ६९-गुणतीसवाँ पद में--उपयोग साकार-अनाकार दो प्रकार के उपयोग होते हैं । ३०-तीसवाँ पद में-पासनीया-इसमें साकार उपयोग का अधिकार है । ३१-इकतीसवाँ पद में-संज्ञी-जीव संज्ञी असंज्ञी दो प्रकार के होते हैं । ३२-बत्तीसवां पद में--संयति-संयति असंयति संयतासंयति आदि का वर्णन है । ३३-तेतीसवाँ पद में-अवधि-अवधिज्ञान कितने प्रकार का है। ३४-चोतीसवाँ पद में प्रचारना-प्रचारना कहाँ तक किस प्रकार की है। ३५-पैतीसवाँ पद में वेदना-चौबीस दंडक के जीवों को वेदना किस प्रकार से होती है । ३६-छतीसवाँ पद में-समुद्घात्-सात समुद्घात का विस्तार से वर्णन है ।
इस प्रज्ञापन्नसूत्र के मूलश्लोक करीब ७७८७ हैं। आचार्य विमलसरि-आप नागिल शाखा के राहु नामक प्राचार्य के शिष्य विजयसूरि के शिष्य थे । आपने प्राकृत भाषा में 'पउमचरियम्' अर्थात् पद्मचरित्र ( जनरामायण ) नामक ग्रन्थ की रचना की जिसके समय के लिये कहा है किपंचेव य वाससया दुसमाए तीस वरिस संजुत्ता । वीरे सिद्धिमुवगए तओणिबध्धं इयं चरियं ॥
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--श्री वीर परम्परा
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