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________________ आचार्य रत्नप्रभसरि का जीवन ] [ओसवाल संवत् ५१५ ___ कालकाचार्य-इसी किताब के पृष्ठ ४०९ पर चार कालकाचार्य का नामोल्लेख किया जिसमें दत्तकों यज्ञ फल कहने वाले का भी नाम आया है जिसके लिये ऐसी घटना बनी थी कि तुरिमिणी नगरी के उद्यान में एक समय कालकाचार्य पधारे थे वहां पर कालकाचार्य के बहन का पुत्र दत्त नाम पुरोहित था उसने अपना स्वामि राजा को छल कपट से कारागर में डाल कर आप स्वयं राज को अपने अधिकार में कर लिया था और आप वहां का राजा बन गया था राजा दत्त अपनी माता के कहने से एक दिन कालकाचार्य के पास आया उसके हृदय में पहले से ही धर्म द्वेष था अतः उन्मत की भाँति क्रोध युक्त हो कर कालकाचार्य को यज्ञ के विषय में प्रश्न पूछा कि यज्ञ का क्या फल होता है ? आचार्यश्री ने कहा कि यज्ञ में जो पशुओं की हिंसा की जाती है और हिंसा का फल होता है नरक अर्थात् हिंसा करने वाले नरक में जाकर अनन्त दुःखों को भोगता है । यह बात दत्त को बहुत बुरी लगी खैर उसने पुनः पूछा कि हमारा और आपका शेष आयुष्य कितना रहा है और किस कारण मृत्यु होगा एवं मर कर कहाँ जावेंगे ? कालकाचार्य ने कहा दत्त तेरा श्रायुष्य सात दिन का रहा है तू कुभी में पच कर मरेगा कुत्तं तेरी लाश को खायंगे और तू मर कर नरक में जावेगा फिर मैं यह कह देता हूँ कि तेरे मुंह में वृष्टा पड़ेगा तब जान लेना कि मेरी मृत्यु आ गई है और मैं समाधि के साथ मर कर स्वर्ग में जाऊँगा। इस जवाब से दत्त को और भी विशेष गुस्सा आया और आचार्य श्री के लिये गुप्ताचर को रख दिया कि ये सातदिनों के अन्दर कहीं विहार न कर जाय बाद दत्त अपने स्थान को चला गया ओर ऐसे स्थान में बैठ गया कि वहाँ न तो मुह में वृष्टा पड़ सके और न मृत्यु ही आ सके ? पर भवित व्यता को कौन मिटा सकता है दत्त अपने गुप्त स्थान में रह कर दिन गिनता था परन्तु भ्रांति से सातवां दिन को आठवां दिन समझ कर आचार्यश्री के वचन को मिथ्या साबित करने की गर्ज से अश्वारूढ़ हो कर राज मार्ग से जा रहा था राज मार्ग में क्या हुआ था कि एक मालन पुष्पों की छाब लेकर जा रही थी उसके उदर में ऐसी तकलीफ हुई कि वह राज मार्ग में ही टट्टी बैठ गई और पास में पुष्प थे वे वृष्टा पर डाल दिया उसी रास्ते से दत्त पा रहा था घोड़ा का पैर उस पृष्टा पर लगा कि वृष्टा उछल कर थोड़ासा दत्त के मुह में जा पड़ा जिसका स्वाद आते ही दत्त विचार कर वापिस लौट रहा था परन्तु दत्त का अत्याचार से मंत्री वगैरह सब असन्तुष्ट थे उन्होंने किसी जितशत्रु राजा को ला कर राज गादी बैठा दिया उसने दत्त को पकड़ पिंजरा में डाल दिया । बाद दत्त को कुभी में डाल कर भठ्ठी पर चढ़ाया और नीचे अग्नि लगादी और बाद में उसकी लाश कुत्तों ने खाई एवं कदर्थना की और वह मर कर नरक में गया। तत्पश्चात् कालकाचार्य वहां से विहार किया कई अ6 तक भव्य जीवों का उद्धार कर अन्त में समाधिपूर्वक काल कर स्वर्ग पधार गये इस प्रकार कालका चार्य महा प्रभाविक भाचार्य हुए हैं। श्रीशत्रुजयतीर्थ का उद्धार जैन संसार में तीर्थश्रीशत्रुजय का बड़ा भारी महात्म्य एवं प्रभाव है । इतना ही क्यों पर शत्रु जय तीर्थ को प्रायः शाश्वता तीर्थ बतलाया है । जैनांगोपांग सूत्र में श्री शत्रुजय के विषय प्रचुरता से उल्लेख मिलता है । श्रीज्ञातसूत्र तथा अंतगढ़दशांग सूत्र में उल्लेख मिलता है कि हजारों मुनिराज शत्रुजय तीर्थ पर जाकर अन्तसमय केवल ज्ञान प्राप्ता कर मोक्ष गये हैं । जैसे यह तीर्थ प्राचीन है वैसे इस तीर्थ के उद्धार भी बहुत हुए हैं और जैसे मनुष्यों ने इस तीर्थ के उद्धार करवाये है वैसे देवताओं के इन्द्रों ने भी तीर्थोद्धार dain Edu कालकाचार्य और पु० दत्त ] For Private & Personal use Only www.j४९५y.org For Private & Personal Use Only
SR No.003211
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages980
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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