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________________ के बाद ही प्रारम्भ नहीं हुई थी किन्तु इस समय के सैकड़ों वर्ष पूर्व से ही विदेशी लोग भारत में आ आ कर यहाँ की अमूल्य पुस्तकें अपने देश में ले जाते थे। उदाहरण के तौर पर देखिये, विक्रम की पाँचवी शताब्दि में चीनी यात्री फाइयन भारत में आया और १५२० पुस्तकें ताड़ पत्रों पर लिखी हुई भारत से अपने देश ले गया। ई. संवत् की सातवीं शताब्दि में चीनी यात्री हुयनत्संग भारत में आया और वह भी भारत से कोई १५०० ताड़ पत्र पर लिखी हुई पुस्तकें ले गया था। इस प्रकार भारत में कितने ही यात्री आये और असंख्य पुस्तक-रत्न भारत से अपने २ देशों में ले गये। इसकी संख्या का अनुमान कौन लगा सकता है। फिर भी हमें इस बात को बड़ी खुशी है कि जिन म्लेच्छों ने हमारे साहित्य को जला का खाक कर दिया था, उसकी अपेक्षा जो पाश्चात्य लोग ले गये दह सहस्रत: अच्छा ही है । कारण, वहां हमारे साहित्य का अच्छी तरह संरक्षण हुआ और होता रहेगा जो कि हम से भी उस समय भसम्भव एवं कठिन था तथा हमारे यहां रहने पर उनसे क्षुद्र कीड़े ही लाभ उठाते, किन्तु पाश्चात्यों ने उस अमूल्य साहित्य से अधिकाधिक अछे से अच्छा लाभ उठाया। हमारे पूर्वज ऋषि महर्षियों ने ऐसा कोई भी-विषय छूत (शेष) न रहने दिया कि जिस पर कलम न उठाई हो । जैसे, आत्मवाद, अध्यात्मवाद, कर्मवाद, परमाणुवाद, लोकाचार, नीति, राजनीति, ज्योतिष, वैद्यक, खगोल, भूगोल, गणित, फलित आदि २ । इतना ही नहीं, पशु-विज्ञान, भाषा आदि को भी लेखिनी से अछूता न छोड़ा था। जैसे विक्रम की तेरहवीं शताब्दि में हंसदेव नामक जैन मुनि ने “मृग पक्षी शास्त्र" नाम का ग्रन्थ लिखा था। जिसमें १९०० श्लोक हैं और उनके ३६ वर्ग जिनमें २२५ पशु-पक्षियों की भाषा का प्रतिपादन किया है। उस ग्रन्थ को जैनों ने ही नहीं, जैनेतर विद्वानों ने मुद्रित भी करवा लिया और पठन-पाठन द्वारा अच्छा लाभ भी उठाया है। देखो-"अक्टूबर ४१ की मासिक सरस्वती"। जिसमें उसके सम्पादक ने बड़ी महत्वपूर्ण आलोचना की है। वैसे तो आज भी अनेक ग्रन्थ हमारे ज्ञानभण्डारों में विद्यामान हैं। परन्तु वे ऐसे.स्वार्थी-अनभिज्ञ लोगों के हाथ में है कि जिनसे सिवाय क्षुद्र कीराण के अतिरिक्त कोई भी विद्वान् लाभ नहीं उठा सकते हैं । जन कल्याणार्थ निर्माण किया साहित्य भाज उन लोगों की संपति बन गई है मैंने ऐतिहासिक साधनों का अभाव एवं मिलने की दुर्लभता का यह सबसे महत्व पूर्ण कारण बतलाया है कि "कई विधर्मी आक्रमणों से, कई मुसलमानों को धर्मान्धता से, विदेशियों द्वारा दूसरे देशों में ले जाने से, और अवशेष हमारे ही देश के स्वार्थी लोगों के अधिकार में रह जाने से ऐतिहासिक ग्रन्थ मिलने की दुईभता का अनुभव करना पड़ता है, जो इतिहास लिखने में सर्व प्रथम साधन कहा जा सकता है। २-ऐतिहासिक साधनों में दूसरा नम्बर है मन्दिर एवं मूर्तियों का । भारत में प्राचीन काल जिसे हम ऐतिहासिक पूर्व काल कह सकते हैं, से ही मूर्तियों का मानना सावित है । विद्वानों का भी मत है कि मूर्तियों की मानता का प्रारंभ जैनों से ही हुआ है। जैन शास्त्रों के आधार पर तो मूर्तियों की मान्यता अनादि काल से चली आई है, किन्तु ऐतिहासिक दृष्टि से देखा जाय तो अभी सिन्ध और पंजाब की सरहद पर जो "हरप्पा" और "मोहन जादरा" नामक मगर निकले हैं, जिसमें एक देवी को तथा दूसरी ध्यानावस्थित मूर्तियाँ प्राप्त हुई हैं। विद्वानों का कहना है कि वे मूर्तियाँ इ. स. पाँच हजार वर्ष पूर्व की बनी हुई हैं । इनके अतिरिक्त मैंने "मूर्ति पूजा का प्राचीन इतिहास" के पाँचवे प्रकरण में बहत प्रमाणों से भूर्ति पूजा की प्राचीनता सिद्ध करदी है जिज्ञासुओं को वहां से जान लेना चाहिये। जैसे जैन साहित्य पर अत्याचार गुजरा था वैसे ही मन्दिर एवं मूर्तियों पर भी दुष्टों ने जुल्म गुजारने में कमी नहीं रक्खी थी । अतः उन मूर्तियों पर के शिलालेख भी ध्वंस हो गये । जिस शत्रुजय तीर्थ को बहुत प्राचीन माना जाता है, समय समय पर उसका जीर्णोद्धार भी हुआ था। किन्तु चौदहवीं शताब्दि में अलाउद्दीन खिलजी की सेना ने उनको नष्टभ्रष्ट कर डाला । इनके अतिरिक्त अनेको मन्दिर एवं मूर्तियों और शिलालेखों का विधर्मियों द्वारा दुष्टता पूर्वक ध्वंस कर दिया गया था। जो कुछ शेष प्राचीन मन्दिर और मूर्तियां बच गई थीं, उनकी प्राचीनता एवं कई शिलालेख उनका जीर्णोद्धार कराते समय हमारे ही हाथों से हमारी असावधानी के कारण चूना मिट्टी से मिटा दिये गये थे। अतएव प्राचीन मन्दिर मूर्तियों एवं शिलालेख मिलना दुर्लभ हो गये । फिर भी निरन्तर शोध (खोज) से आज भूगर्भ से थोड़े बहुत प्रमाण मिले हैं। किन्तु वे इतने विशाल इतिहास के लिए पर्याप्त नहीं कहे जा सकते । तथापि हमारे इतिहास लिखने में परमोप योगी साधन है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003211
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages980
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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