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वि० पू० २८२-२९८ ]
भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास
के अत्याग्रह से राजा के गुरुओं को भोजन कराने के लिये आमन्त्रण किया। जब वे साधु आये तो एक दासी द्वारा रानी ने उनकी बढ़िया कोमल जूतियाँ मंगवा कर, उनको बारीक से बारीक ची। फाड़ कर अच्छे मसाले डाल कर राइता (साक) बना कर उन साधुओं को खिला दिया। इसके बाद राजा ने गुरुओं से कहा कि यह मेरी चेलना रानी है । इसने पूर्व भव में क्या सुकृत किये जिससे मेरे राज में इतनी उच्चस्थिति पर पहुँची है । बौद्ध साधुओं ने कहा कि रानी पूर्व जन्म में एक कुतिया थी पर हमारे साधुओं के स्पर्श से राज. कुल में जन्म लेकर आपकी गनी बनी है। इस पर चेलना ने कहा कि महात्माजी ! यदि आपको परभव का ज्ञान है तो आप यह बतलायें कि अभी आपने क्या २ भोजन किया है। साधु उत्तर दे ही रहे थे कि इतने में पुकार आई कि महन्तजी की जूतियां बहुत खोजने पर भी नहीं मिली हैं । आखिर रानी चेलनाने कहा कि आपने मेरा पूर्व भव तो बता दिया कि मैं कुत्ती थी पर आपकी जूतियाँ कहाँ गई इसका भी श्रापको ज्ञान है ? इस पर महंतजी ने सोचा कि रानी चेलना ने ही हमारी जूतियां छिपादी होंगी । बस ! उन्होंने कह दिया कि मेरी जूतियां रानी चेलना ने ही लो हैं। इस पर रानी ने कहा कि जूतियां तो आपके उदर में हैं और दोष मेरे पर लगाते दो, यही आपका ज्ञान है ? इस पर सब लोग चकित हो गये राजा भी रानी पर क्रोधित हो गया इस पर गनी ने ऐसी दवाई महन्तजी आदि सब को दी जिससे सबको उलटियां होने लगी. जिसके अन्दर जूतियों की बनी हुई संगरियों वा शाक प्रत्यक्ष दिखाई देने लगा। इससे राजा के साथ साधुओं की जमात और महन्तजी शर्मिन्दे हो गये । इस प्रकार आपस में वाद-विवाद होते रहे । इससे राजा की रुचि बोद्धधर्म से हट का जैन धर्म की ओर झुकने लगी।
एक समय राजा श्राश्वारूढ़ होकर बगीचे में गया था । वहाँ पर एक अनाथी नामक मुनि ध्यान लगाये खड़े थे जिनका रूप एवं क्रांति देख राजा ने कहा कि हे मुनि ! इस युवक पन में योग लेकर व्यर्थ यह कष्ट क्यों कर रहे हो ? मुनि ने कहा कि मैं संसार में अनाथ था । राजा ने कहा कि हे मुनि ! तुम अनाथ हो तो मैं तुम्हारा नाथ बन सकता हूँ। तुम मेरे राज में चलो । मुनि ने कहा कि हे राजन् ! तुम खुद ही अनाथ हो । तुम मेरे नाथ कैसे बनोगे ? गजा ने सोचा कि शायद मुनि मुझे नहीं पहचानता होगा। तब राजा ने अपना परिचय कराया। इस पर मुनि ने राजा को उपदेश दिया कि हे राजन् ! तेरे पास कितनी ही सम्पत्ति हो, पर जब विपत्ति एवं काल आवेगा तब तेरा नाथ कौन होगा कि जिस तुझे बचा सके ? इतने में रामा ठीक नाथ अनाथ के भेद समझ कर समकित रत्न को प्राप्त हो गया । बाद भ० महावीर का उपदेश सुन कर आम दुनियां के बीच जैन धर्म को स्वीकार कर लिया। राजा ज्यों २ जैनधर्म का अध्ययन करने लगा त्यों त्यों अन्य धर्म उसको बच्चे का खेल ही नजर आने लगा। एक समय राजा भगवान को वन्दन कर इस्ती पर सवार हो अपने स्थान पर प्रारहा था। उसी समय शक्रेन्द्र अपनी देव सभामधर्मकी दृढ़ता की प्रशंसा करते हुए कहा कि आज भारतक्षेत्र में राजा श्रेणिक धर्म में इतना रढ़ श्रद्धा वाला है कि किसी देव दानव से भी चलायमान नहीं किया जा सकता है । इस पर सभा में रहा हुआ एक मिथ्या दृष्टि देव जो इंद्र के बचन को असत्य बनाने के लिये एक साधु का रूप बना कर कंधे पर जाल डाल कर राजा श्रेणिक के सामने कसाई की दुकान पर मांस लेने के लिये आया जिसको देख राज ने कहा कि हे अधम्म ! तूं साधू के वेष में यह क्या कर रहा है। साधू ने कहा-हे राजन् ! आप अभी नये जैन हैं क्या भापको उम्मेद है कि महावीर के पास १४००० क्षत्री साधू हुए हैं वे विना अपने खज ( मांस) खाये रह सकते हैं ? हाँ ! कोई छाने खाते हैं और मेरा जैसा ७१८
राजा श्रेणिक को जैनधर्म की प्राप्ति
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