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________________ आचार्य यक्षदेवसरि का जीवन ] [ ओसवाल संवत् ५१५-५५७ मंडोवरा६० तोतला आगीवाल ६२ श्रागसौड़६३ ॥ प्रताणी६४ नाहूदर६५ नवल६६ पचौडा६७ ॥ तापडिया६८ मिणीयार६९ धून७० धूपड़ १ मोदाणी७२ ।। साहा दरक शिवकरण बहुतर वख्याति ॥ इस प्रकार महेश्वरी जाति की उत्पत्ति तथा उनकी ७२ जातियों की उत्पत्ति लिखी है तथा इनकी शाखा प्रतिशाखा रूप ८०० जातियों के नाम भी प्रस्तुत ग्रन्थ में लिखा है । इस जाति की उत्पत्ति का समय स्पष्ट रूपसे तो नहों लिखा हैं पर लेखक के भावों से राजाविक्रम के आस पास के समय का अनुमान किया जा सकता है पर इस समय के लिये विश्वासनीय प्रमाण नहीं दिया है तथापि महाशय दरक जी का परिश्रम प्रस्तुत कहा जा सकता है कि आपने बड़े ही परिश्रम एवं शोध खोज से इस ग्रन्थ को तैयार किया हैं यदि ऐतिहासिक दृष्टि से कुछ अधिक शोध खोज की जाती तो ग्रन्थ का महत्व और भी बढ़ जाता। महाशय दरकजी को वही भटों एवं जागों से जितनी सामग्री प्राप्त हुई वह संग्रह कर के पुस्तक के रूप में छपा दी हैं पर इसमें त्रुटियें बहुत रही है जैसे कि १-महेश्वरी जाति का उत्पत्ति स्थान खंडेला नगर बतलाया है यह विचारणीय है क्योंकि खंडेला नगर और महेश्वरी जाति का कोई सम्बन्ध नहीं है खंडेला नगर से खंडेलवाल जाति की उत्पत्ति हुई है जिसको हम ऊपर लिख आये हैं तब महेश्वरीजाति की उत्पत्तिमहेष्मति नगरी जो पाती प्रान्त में है जिसका अपर नाम महेश्वरी नगरी भी था वहां से महेश्वरी जाति की उत्पत्ति हुई है दूसरा इस जाति का उत्पत्ति समय विक्रम संवत के आस पास लिखना भी गलत है कारण महेश्वरी जाति को उत्पत्ति श्राद्यशंकराचार्य के समय में हुई है इसके पूर्व कोई भी प्रमाण नहीं मिलता है जैन पट्टावलियों में उल्लेख मिलता है कि विक्रम की आठवीं शताब्दी के अन्त और नौवीं शताब्दी के प्रारम्भ में महेश्वरी नगरी के राजा प्रजा एवं राजकुमारादि को आचार्य श्री ककसूरिजी ने प्रतिबोध देकर जैनधर्म की दीक्षा दी थी बाद में वहां शंकराचार्य का आना हुआ और उन लोगों को भौतिक चमत्कार दिखाकर पुनः अपने धर्म में दीक्षित कर लिये थे जब इस बात का पता आचार्य कक्कसूरि को मिला तो वे भी पुनः महेश्वरी नगरी में पधार कर गजकुवार तथा बहुत से लोगों को पुन जैन बना लिये थे इस समय के बाद भी महेश्वरियों के अन्दर से मालु डागा सोनी लुनियों वगैरह जातियों को प्रतिबोध देका जैनधर्म में दीक्षित किये थे। कई महेश्वरी भाई यह भी कह उठते हैं कि चोपड़ा नौलखादि ओसवालों को महेश्वरी बना लिये थे जिन्हों की जाति मंत्री कहलाई। पर यह बात बिल्कुल कल्पित है कारण राजपूतों से जैनाचार्यों ने चोपड़ा नोलखा बनाये थे जिसके पूर्व भी महेश्वरियों में मन्त्री जाति का होना पाया जाता है जैन पट्टावलियादि किसी ऐतिहासिक प्रन्थ में ऐसा उल्लेख नहीं मिलता है कि कोई एक भी ओसवाल जैनधर्म को छोड़ कर महेश्वरी बन गया हो दूसरे ओसवालों का आसन ऊँचा था कि उसको छोड़कर महेश्वरी बन जाना यह बिल्कुल असंभव बात है तीसरे ओसवालों के बजाय महेश्वरी जाति में ऐसी कोई विशेषता भी नहीं थी। हां, कई ओसवाल राज प्रसंग से शिव व्रष्णु धर्म पालने लग गये थे पर वे भी अपनी ओसवाल जाति का गौरव तो वैसा ही रखते हैं कि जैसे जैन ओसवाल रखते हैं तथा शिव ब्रष्णु धर्म पालने वाले प्रोसवालों का जैन ओसवालों के साथ तथा जैनमन्दिरों के साथ सम्बन्ध भी वही रहा जो शुरू से था वे धर्मान्तर होने पर भी अपना बेटी व्यवहार ओसवालों के साथ करते थे न कि महेश्वरियों के साथ । उनके घरों में जन्म विवाह और मरण सम्बन्धी क्रियाएँ जैन धर्मानुसार जैन मन्दिरों में जाकर ही करते हैं तात्पर्य यह है कि वे राजा के दीवान महेश्वरी जाति की उत्पत्ति ] Jain Educa For Private & Personal Use Only www.jaintay.org
SR No.003211
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages980
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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