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वि० पू० ४०० वर्ष ]
[ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास
मंत्री ने कहा पूज्यवर ! देवी की बनाई मूर्ति और आप जैसे समर्थ पुरुषों का आदेश, हमारे लिये तो यह अच्छे से अच्छा अवसर एवं शुभ मुहूर्त है । कृपा कर हमारी प्रार्थना को स्वीकार कर श्राप तो शीघ्र पधारें कि हम सब लोग भगवान वीर प्रभु के दर्शन कर भाग्यशाली बनें । इतनी उत्कंठा का यही कारण था कि उन लोगों ने पहिले कभी जैन तीर्थंकरो की मूर्ति के दर्शन नहीं किये थे। अतः उत्कंठा होना स्वभाविक ही थी।
गम्भीर आशय एवं धैर्थ चित्तवाले सूरिजी उन भावुकों की उमंग एवं उत्साह को नहीं रोक सके और भवितव्यता का विचार कर आपने चलने की स्वीकृति दे दी। बस फिर तो था ही क्या ? मंत्री ने सबक खबर दे दी। हस्ती वगैरह सब लवाजमा और सब सामग्री साथ में लेकर सूरिजी के पास आये और सूरिर्ज भी उन श्रावक वर्ग के साथ हो जहां भगवान वीर प्रभु की प्रतिमा थी वहां पधारे।।
जहां गाय का दूध स्त्राव होता था उस संकेत से भूमि खोदकर अन्दर से मूर्ति निकाली और हीर पन्ना माणक मुक्ताफल तथा सुवर्ण पुष्पों से एवं शुभ भावना से प्रभुको वधाये । हाँ सात दिन की जल्दी कर के कारण मूर्ति के वक्षस्थल पर निंबू के फल जैसी दो प्रन्थिये रह गई। उसको भी सज्जन पुरुषों ने शुभ निमित ही माना ।
प्रभु प्रतिमा भूमि से निकलते ही आकाश में दुंदुभी के मधुर नाद होने लगे। इधर मनुष्यों के बजाये हुए बारह प्रकार के बाजों से गगन गूंज उठा अर्थात् वह शब्द आकाश के चारों ओर फैल गया।
पंच प्रकार के पुष्पों की वृष्टि हुई, दिशा सर्वत्र निर्मल बन कर मानो नाचने ही नहीं लगी हो और दक्षिणदिश का शुभ सुगन्ध एवं मंद मंद वायु चलने लगा।
वाजा गाजा के गंभीर नाद एवं सर्व लवाजमा के साथ भगवान की मूर्ति को गजारूढ़ कर राजा प्रजादि बड़े हो हर्षोत्साह से प्रभु को नगर प्रदेश करवाया । मंत्रेश्वर ने प्रभुप्रतिमा को अपने मन्दिर में ले जाकर आरति आदि भक्ति से योग्यासन पर स्थापन की तत्पश्चात् आचार्य श्री की जयध्वनी से आचार्यदेव को पास ही की पौषधशाला में ठहरा दिये ।
तदनंतर श्रेष्ठि बुद्धि वाले धर्मज्ञ मंत्रीश्वर ने उस मंदिर की प्रतिष्ठा के लिये सूरिजी से मुहूर्त की प्रार्थना की जिस पर सूरिजी ने माघशुक्ला पंचमी गुरुवार ब्राह्ममुहूर्त और धनुर्लग्न का सर्व-दोष विवर्जित मुहूर्त दिया, जिसको मंत्री ने बड़े ही हर्ष के साथ मुक्ताफलादि से बधाय के ले लिया। उसी दिन से धर्मवीर मंत्रीश्वर प्रतिष्ठा की सामग्री एकत्र करने में लग गया ! पंच वर्णा पुष्प वृष्टि, बभूव गगनाङ्गणात् । दिशः प्रसेदुर्वायुश्च, नीरजा दक्षिणो ववौ ॥ अथ मङ्गल तूर्येषु, वाद्यमानेषु सर्वतः । वर्द्धमान जिनं श्रेष्ठी, हृष्टो देव गृहेऽनयत् ।। भक्ति युक्तस्ततः श्रेष्ठी, निज मंदिर सन्निधौ । गुरूनुपाश्रयेऽनैषी, दुपरूध्य सगौरवम् ॥ ततः प्रतिष्ठा लनानि, शोधयित्वा विशुद्ध धोः। लग्नमेकं विनिश्चिक्ये, सर्व दोष विवर्जितम् ॥ माघमासे शुद्धपक्षे, पूर्णायाँ पंचमी तिथौ । ब्राह्मे मुहूर्ते वारेच, गुरौ लग्न' पुनर्धनुः ॥ तदुपस्कर कार्याणा, मीलने यावदादृतः । श्रेष्ठी प्रवर्तते व्यग्रः, सूरि वाक्याद्यथा विधि ॥ तावत् कोरंटक पुरात् ,सङ्घ विज्ञप्ति पाणयः । श्रावकाः समुपेत्याशु, सूरिपादान व वन्दिरे ॥ व्यजिज्ञपन्निदं पूज्याः , कोरंटक पुरे वरे । श्री वीर मन्दिरं सद्यो, बिम्बं चाकारयनवम् ॥
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