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वि० पू० ४७० वर्ष ]
[ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास
ने प्रार्थना की कि हे प्रभो ! आप क्या विचार करते हो ? वहाँ पधारने से श्रापको महान लाभ होगा, मेरी भी प्रार्थना है कि आप वहाँ अवश्य पधारें। वे पेटार्थी अपनी विषय वासना पोषणार्थ हम देवी देवों को बदनाम करते हैं और कहते हैं कि यह बलि देवी देवों को दी जाती है इत्यादि । आपके पधारने से हम लोगों का कलंक भी धुल जायगा।
बस फिर तो देर ही क्या थी ? सुबह होते ही क्रिया काण्ड से निवृत हो सूरिजी ने अपने शिष्यों के साथ श्रीमाल नगर की ओर बिहार कर दिया, पर उन पाखगियों के साम्राज्य में इस प्रकार बिहार करना कोई साधारण कार्य नहीं था पर एक टेढ़ी खीर थी। रास्ते के संकट के लिये तो मुक्त भोगी ही जान सकते हैं । पर जिन महाभाग्यशालियों ने जन कल्याणार्थ अपने आप को अर्पण कर दिया है। उनको सुख दुख एवं कठिनाइयों की क्या परवाह है। वे भूखे प्यासे क्रमशः चलते हुए श्रीमाल नगर के उद्यान में पहुँच गये पर वहाँ पहुँच जाने पर भी आपका कौन स्वागत करने वाला था। जो अवंदाचल पर गृहस्थ मिले थे वे भी भाग्यवशात् उस समय बाहर प्राम गये हुये थे। खैर, मुनियों ने ध्यान लगा कर तपोवृद्धि की।
जब मुनियों को क्षुधा पिपासा प्रबल सताने लगी तो वे सूरिजी की आज्ञा ले नगर में भिक्षा के लिये गये और एक गृहस्थ के घर में प्रवेश किया तो वहाँ एक निर्दय दैत्य कई पशुओं का बध करते नजर आया। बस, वे साधु तो वों से ही वापिस लौट कर सूरिजी के पास आ गये और नगर का सब हाल सुना कर प्रार्थना की कि हे पूज्यवर ! यह नगर साधुनों के ठहरने काबिल नहीं है, अतः यहाँ से शीघ्र ही विहार करना चाहिये।
सूरिजी ने साधुओं को धैर्य्य दिया और अपने विद्वान शिष्यों को साथ लेकर सीधे ही राजसभा में आये जहां कि अनेक जटाधारी यज्ञाध्यक्ष एकत्र हो यज्ञ विषय की सब तैयारियां कर रहे थे। कुछ लोग एक तरफ बैठ कर जैन साधुओं के विषय में बातें कर रहे थे कि यह जैन सेवड़ा अपने कार्य में विघ्न तो न डाल दें इत्यादि।
राजा जयसैन राजसभा में बैठा था कि सामने से एक तेजस्वी महात्मा श्राते हुए नज़र पड़े जिनके मुखमण्डल पर अपूर्व तेज था । लम्बे कान, दीर्घ बाहु एवं विशाल हृदय था और भूमि देख कर चल रहे थे। राजा इस प्रकार सूरिजी का अतिशय प्रभाव देख कर अपने सिंहासन से चट से उठा और सूरिजी के सामने जाकर उनको नमन भाव किया प्रत्युत्तर में सूरिजी ने धर्मलाभ दिया जिसको सुन कर वे उपस्थित लोग मुसकरा कर हंसने लगे कि यही जैन साधुओं की मूदता है कि अभी तक इनको अशीर्वाद देना भी नहीं पाता है। राजा जयसैन ने उन लोगों की चेष्टा देख कर सूरिजी से कहा कि महात्माजी ! आप वन्दन के उत्तर में आशीर्वाद नहीं देते जैसे कि अन्य साधु दिया करते हैं ? सूरिजी ने कहा कि राजन् ! यदि मैं आपको चिरंजीवी का आशीर्वाद दू वो नरक में भी दीर्घ आयुष्य है । बहुपुत्र का दूतो श्वानादि के
किसी शिवोपासक ने जैनों से कहा कि नो वापि नैव कूपं न च वरं तुलसी नैव गङ्गा न काशी । नो ब्रह्मा नैव विष्णुनच दिवसपति व शंभू न दुर्गा ॥ विप्रेभ्यो नैव दानं न च तीर्थगमनं नैव होमो हुतासी । रे रे पाखण्ड मूढ़ ! कथय भवतां कीदृशो धर्मलाभ ॥
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