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ओसवाल जाति की ऐतिहासिकता ]
० पू० ४०० वर्ष
है । इतना ही क्यों पर इन अनुमान प्रामाणादि एकदम उनसे मुंह मोड़ लेना । इतिहे प्रमाणों से ही इतिहास की भींत खड़ी की जाती है। जितना पटटावल्यादि ग्रन्थों में है उतना अन्य स्थान
कान्ति-मैंने वंशावलियाँ और प्राचीन ग्रन्थ में नहीं मिलेगा। पर शायद आपकी शिक्षा में इसका बहुत से देखे हैं उनमें साल, संवत, घटना, स्थान स्थान न हो ?
और व्यक्ति के विषय में इतनी गड़बड़ है कि स्थान कान्ति-श्राप परोक्ष प्रमाण किसको कहते हैं ? मिले तो समय नहीं मिलता है और समय मिलता है शान्ति-आगम, उपमान और अनुमान ये तो व्यक्ति नहीं मिलता है तो फिर उस पर कैसे परोक्ष प्रमाण हैं। विश्वास किया जाय ?
कान्ति-आगम का अर्थ क्या है ? शान्ति-यदि किसी स्थान पर ऐसा हुआ हो शान्ति-प्राचीन समय के लिखे हुये सूत्र, तो क्या सब पट्टावलिये त्याज्य हो सकती हैं। प्रन्थ, रास, पट्टावलियां वंशावलियां ये सब आगम दूसरे इस प्रकार की गड़बड़इतिहास में भी कम नहीं प्रमाण, तथा एक वस्तु का सम्बन्ध दूसरी वस्तु से है और उन लोगों को भी समय समय पर अन्य साधनों जोड़ देना और आगे चल कर वे सत्य सिद्ध हो जाय द्वाग संशोधन करना पड़ता है । देखिये पृथ्वीराज उसे अनुमान प्रमाण कहते हैं। रासो, मुणोयत नैणसी की ख्यात और टॉड साहब कान्ति-श्राप जी चाहे वह माने परन्तु मैं तो का राजस्थान वगैरह कई प्रन्थ हैं जो इधर उधर की ऐतिहासिक प्रमाण एवं प्रत्यक्ष प्रमाण को ही मानता हूँ सुनी हुई बातों के आधार पर निर्माण किये गये हैं शांति-आपने एक विद्वान का कहना सुना है ?
और वे परमोपयोगी होने से उनकी गिनती ऐतिहा- कांति-नहीं, कृपा कर सुनाइये । सिक साधनों में है । तो फिर हमारी पट्टावल्यादि शांति-वस्तु की मूलस्थिति को जानने के लिये का तिरस्कार क्यों किया जाता है ?
दो प्रमाणों की आवश्यकता है १-प्रत्यक्षप्रमाण कान्ति-श्रापका कहना ठीक है परन्तु पृथ्वी- २-परोक्ष प्रमाण । यद्यपि परोक्ष प्रमाण प्रत्यक्ष राज रासो, नैणसी की ख्यात और टॉड गजस्थान प्रमाण के सामने गौण है तथापि परोक्ष प्रमाण के आदि प्रन्थों को इतिहास में स्थान भले ही दे दिया बिना प्रत्यक्ष प्रमाण का काम भी तो नहीं चलता है। है, परन्तु उनमें बहुत से स्थानों पर श्रुटिये है। सच पूछो तो परोक्ष प्रमाण प्रत्यक्ष प्रमाण का ठीक
शान्ति-हाँ, उन प्रन्थों में श्रुटिये जरूर रही हुई मार्गदर्शक है। परोक्ष प्रमाणकी सहायतासे ही प्रत्यक्ष हैं पर उन त्रुटियों के कारण उनका अनादर कर दिया प्रमाण आगे चलता है । इतना ही क्यों पर प्रत्यक्ष जाय तो ज्न प्रन्थों में जो इतिहास का मसाला है प्रमाण वाले पग २ पर अनुमान प्रमाण की शरण वह आपको खोजने पर भी अन्यत्र नहीं मिल सकता लेते हैं । समझा नहीं कान्ति ! है । अत: संशोधकों का कर्तव्य है कि उनका संशो- कान्ति-मेहरबान ! मैं खंडन मंडन के झगड़े में धन करके उनको काम में लें,जैसे नैए सी की ख्यात उतरना नहीं चाहता हूँ । खैर, बतलाइये ! श्राप इस काशीनागरीप्रचारिणी सभा ने मुद्रित करवाई है। समय क्या लिख रहे हैं ? जहाँ श्रुटिये थीं वहां उन्होंने संशोधन कर फुटनोट शान्ति-मैं ओसवाल जाति की उत्पत्ति के में टिप्पणिय कर दी है। इसी प्रकार प्राचीन पट्टा विषय का इतिहास लिख रहा हूँ। वल्यादि प्रन्थों का भी संशोधन करना चाहिये न कि कान्ति-श्राप किस निर्णय पर आये हैं ?
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