________________
आचार्य केशीश्रमण का जीवन ]
[वि० पू० ५५४ वर्ष
(५६) हस्तिनापुर के राजा शिव ने पहिले वापसी दीक्षा ली थी और इसका मत था कि संसार भर में सात द्वीप और सात समुद्र ही हैं, परन्तु जब भगवान महावीर का समागम होने से आपको अपनी मान्यता मिथ्या मालूम हुई तो भगवान वीर के सिद्धान्तको स्वीकार कर जैनदीक्षा ग्रहण कर ली। “भगवती सूत्र"
(५७) राजा वीराँग ( ५८) राजा वीरजस इन दोनों नृपतियों ने भगवान महावीर के पास दीक्षा लेकर मोक्षपद को प्राप्त किया।
_ "ठाणायांग सूत्र ठा०८" (५९) पावापुरी के राजा हस्तपाल जैनधर्म के कट्टर प्रचारक थे जिन्होंने भगवान महावीर को आप्रहपूर्वक विनती कर अन्तिम चातुर्मास अपने यहाँ कराया और उसी चातुर्मास में भगवान महावीर का निर्वाण हुआ।
"कल्पसूत्र" इनके अलावा भी कई राजा महाराजा भगवान महावीर प्रभु के शान्तिमय झंडे के नीचे अपना आत्म-कल्याण करते थे । मैंने अपने उद्देश्यानुसार महावीर प्रभु का जीवन संक्षेप में लिखा है।
अन्त में वि. सं. पूर्व ४७० वर्ष भगवान महावीर ने चरम चतुर्मास पावापुरीनगरी के महाराज हस्तपाल की रथशाला में किया और कार्तिक कृष्णा अमावस्या की रात्रि में भगवान ने वेदनीय नाम गोत्र
और आयुष्यकम का क्षय कर मोक्ष पद प्राप्त कर लिया। तत्पश्चात इन्द्रादिक असंख्य देव और चतुर्विध श्रीसंघ ने शोक संयुक्त प्रभु का निर्वाण कल्याणक किया उसी रात्रि के अन्त में गुरु गोतम स्वामीको केवल ज्ञान हुआ।
यह बात तो मैं पहिले ही लिख पाया हूँ कि भगवान् के समय पार्श्वनाथ प्रभु के सन्तानिये केशीश्रमण के आज्ञावृति हजारों की संख्या में साधु धर्मप्रचार कर रहे थे। यज्ञवादियों के चंगुल में फंसे हुए कई राजा महाराजाओं को सदुपदेश देकर जैनधर्म के परमोपासक बनाये थे।
___ जब भगवान महावीर ने चतुर्विध श्रीसंघ की स्थापना कर प्रचलित नियमों में समयानुसार रद्दोबदल कर कई नये नियमों का निर्माण किया था, उस समय भी पार्श्व संतानिये मौजूद थे तथा ज्यों ज्यों उनकी महावीर से भेंट होती गई त्यों त्यों वे वीरशासन स्वीकार करते गये।।
जैसे पार्श्वनाथ संतानिये केशीकुमार जिसका वर्णन श्रीउत्तराध्ययन सूत्र के २३ वा अध्ययन में पाता है जिसको मैं संक्षेप से यहाँ लिख देता हूँ। जो पाठकों के लिये बड़ा लाभदायक है।
एक समय का जिक्र है प्रभु पार्श्वनाथ के संतानियों में से मुनि केशीश्रमण भूमण्डल पर विहार करते हुए अपने ५०० मुनियों के परिवार से सावत्थी नगरी के तन्दुकवन उद्यान में पधार गये । श्राप तप संयम की सम्यक् आराधना कर रहे थे जिससे आपको अवधिज्ञान प्राप्त हो गया था, अतः आप मतिज्ञान, श्रुतिज्ञान और अवधिज्ञान एवं वीनज्ञानधारक थे।
उसी समय भगवान् महावीर के ज्येष्ठ शिष्य गणधर इन्द्रभूति जो मतिज्ञान श्रुतिज्ञान, अवधिज्ञान और मनपर्यवज्ञान एवं चार ज्ञान के ज्ञाता तथा चौदहपूर्वधर थे वे भी अपने ५०० शिष्यों के साथ जगत उद्धार करते हुए क्रमशः सावत्थी नगरी के कोष्ठक नाम के उद्यान में पधार गये।
इस बात की शहर में खूब चर्चा हुई । भक्त लोगों ने दोनों मुनियों का अच्छा स्वागत किया परन्तु भगवान् पार्श्वनाथ के सन्तानिये चार महाव्रतरूपी धर्मदेशना तथा भगवान महावीर के सन्तानिये पांच महाव्रत रूपी धर्मदेशना दे रहे थे तथा पार्श्वनाथ संतानियों के पाँच वर्ण के वस्त्र रखने का विधान
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
ww.
ibrary.org