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________________ वि० पू० ५५४ वर्ष ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास और वीर संतानियों के एक सफेद वर्ण के वस्त्र और वह भी परमाणुपेत होने से लोगों को शंका होना स्वाभाविक ही था जब कि दोनों का ध्येय मोक्ष मार्ग साधन करने का है तो फिर ये अन्तर क्यों ? जब दोनों नायकों के शिष्यों का आपस में मिलाप एवं संवाद हुआ और उन्होंने अपने २ आचार्यों को जा कर निवेदन किया तो वे आचार्य भी शासन के हितैषी एवं दूरदर्शी थे कि ऐसी बातें छोटे आदमियों के हाथों में न दे कर आप ही आपस में समाधान करके जनता की शंका को मिटा देवें । बस, फिर तो था ही क्या ? गणधर इन्द्रभूति ने सोचा कि भगवान पार्श्वनाथ के संतानिये हमारे लिए ज्येष्ठ हैं, अतः मुझे उनकी सेवा में जाना चाहिये । गणधर इन्द्रभूति ने केवल ऐसा विचार ही नहीं किया परन्तु उन्होंने अपने शिष्यों को ले कर तन्दुकवन की ओर चलने के लिए प्रस्थान ही कर दिया जहाँ कि पर्श्वनाथजी के सन्तानिये ठहरे हुए थे। इधर केशीश्रमण आचार्य को मालूम हुई कि गौतम यहाँ आ रहा है तब अपने शिष्यों को कहा कि हम गौतम के सामने जा रहे हैं तुम गौतम के लिए पाट या उस पर घास का श्रासन लगा के तैयार रखो। बस, केशीश्रमण अपने कई शिष्यों को साथ ले कर गौतम के सामने गये । उधर गौतम आ ही रहा था रास्ते में दोनों का मिलाप हुआ और परस्पर मिलने से दोनों पक्ष में धर्मस्नेह की तरंगें उछलने लगीं। और वे सब चल कर तन्दुक उद्यान में आये जिस समय पूर्व स्थापित आसनों पर केशीश्रमण और गौतम विराजमान हुए उस समय प्रतीत होता था मानो सूर्य और चन्द्र ही उद्यान को शोभायमान कर रहे थे। इधर इस बात की खबर स्वमत और परमत के लोगों को हुई कि आज दोनों प्राचार्य तन्दुकवन में एकत्र हुए हैं। इनके आपस में संवाद होगा जिसमें किसका पक्ष सच्चा रहेगा चल कर देखें अतः दुनिया उलट पड़ी और देखते २ उद्यान खचाखच भर गया। केवल मनुष्य ही नहीं पर श्राकाश में गमन करने वाले देव और विद्याधर भी इस संवाद सुनने को ललचा गये। जब उनको भूमि में बैठने को स्थान नहीं मिला तो वे आकाश में ही स्थिर रहे, अब सब लोगों के इच्छा यही हो रही थी कि इनका संवाद कब प्रारम्भ हो । केशीश्रमण भगवान मधुर स्वर से बोले कि हे महाभाग्य ! अगर आपकी इच्छा हो वो मैं आपसे कुछ प्रश्न पूछना चाहता हूँ ? गौतमरवामि विनय पूर्वक बोले कि- हे भगवान ! मेरे पर अनुग्रह करावें अर्थात् आपकी इच्छा हो वह प्रश्न पूछने की कृपा करे। (१) प्रश्न-केशीश्रमण भगवान ने प्रश्न किया कि हे गौतम ! पार्श्वप्रभु और वीर भगवान दोनों ने एक ही मोक्ष के लिए यह धर्म रास्ता (दीक्षा) बतलाते हुए पार्श्वप्रभु ने चार महाव्रतरूपी धर्म और वीर भगवान ने पांच महाव्रतरूपी धर्म बतलाया है तो क्या इसमें आपको आश्चर्य नहीं होता है ? उ०-गौतम स्वामी नम्रतापूर्वक बोले कि हे भगवान पहले तीर्थकर श्रीआदिनाथ भगवान के मुनि सरल (माया रहित) थे किन्तु पहले न देखने से मुनियों का आचार व्यवहार को समझना ही दुष्कर या परन्तु प्रज्ञावान होने से समझनेके बाद श्राचार में प्रवृति करना बहुत ही सहज था और चरम तीर्थकर वीर भगवान के मुनि प्रथम तो जड़वत होने से समझना ही दुष्कर और वक्र होने से समझे हुवे को भी पालन करना अति दुष्कर है इसीलिए इन्हीं दोनों भगवान के मुनियों के लिए पांच महाव्रत रूपी धर्म कहा है और शेष २२ तीर्थकरों के मुनि प्रज्ञावान होने से अच्छी तरह से समझ भी सकते थे और सरल होने से परिपूर्ण आचार को पालन भी कर सकते थे अतः इन्हीं २२ भगवान के मुनियों के लिये चार महाव्रत रूपी धर्म कहा Jain Ede International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003211
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages980
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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