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________________ आचार्य केशीश्रमण का जीवन ] [वि० पू० ५५४ वर्ष है। पाँच महाव्रत कहने से स्त्री चोथा व्रत में और परिग्रह धन धान्यादि पांचवाँ व्रत में गिना है परन्तु प्रज्ञापान समझ सकते हैं कि जब किसी पदार्थ पर ममत्व भाव नहीं रखना तो फिर खियां तो ममत्व भाव का घर ही हैं अतः स्त्री और परिग्रह को एक ही व्रत में माना गया है । हे भगवान इसमें किंचित भी आश्चर्य की बात नहीं है दोनों भगवानों का ध्येय तो एक ही है । यह उत्तर श्रवण कर के परिषदा को बड़ा ही संतोष हुआ। यह उत्तर श्रवण करके भगवान केशीश्रमण बोले कि हे गौतम इस शंका का समाधान आपने अच्छा किया परन्तु एक प्रश्न मुझे और भी पूछना है । गौतम स्वामी ने कहा कि भगवान आप अवश्य कृपा करावें । (२) प्रश्न-हे गौतम श्री पार्श्वप्रभु ने साधुओं के लिये 'सचेल' वस्त्र सहित रहना वह भी पांचों वर्ण के स्वल्प या बहुमूल्य अपरिमित मर्यादावाले वस्त्र रखना कहा है और भगवान वीरप्रभु ने 'अचेल' वस्त्र रहित अर्थात् जीणं वस्त्र वह भी श्वेतवर्ण और स्वल्प मूल्यवाला रखना कहा है इसका क्या कारण है ? ___ उत्तर-हे भगवान मुनियों को वस्त्रादि धर्मोपकरण रखने की आज्ञा फरमाई है इसमें प्रथम तो साधुलिंग है वह बहुत से जीवों का विश्वास का भाजन है और लिंग होने से भव्यात्मा धर्म पर श्रद्धा रखते हुये स्वात्मकल्याण कर सकते हैं दूसरा मुनियों की चित्तवृत्ति कभी अस्थिर भी हो जावे तो भी ख्याल रहेगा कि मैं साधु हूँ, दीक्षित हूँ, वेश में यह अतिचारादि मुझे सेवन करने योग्य नहीं हैं अर्थात अतिचारादि लगाते हुये चिन्ह देखके रुक जावेगा । अतः यह लिंग एवं धर्मोपकरण संयम के साधक हैं इसमें पार्श्व प्रभुके संतानिये सरल और प्रज्ञावन्त होने से उन्हों को किसी भी पदार्थ पर ममत्व भाव नहीं है और वीर भगवान के मुनि जड़ और बक्र होने से उन्हों के लिये उक्त कायदा रखा गया है, परन्तु दोनों का ध्येय एक ही है धर्मोपकरण मोक्ष साधन करने में सहायक जान के ही रखने की आज्ञा दी है। केशीश्रमण-हे गौतम ! आपने इस शंका का अच्छा समाधान किया परन्तु और मुझे प्रश्न करना है। इस प्रकार दोनों के धर्म स्नेह युक्त बचनों को श्रवण करके परिषदा बड़ी ही आनन्द को प्राप्त हुई। गौतम-हे भगवान आप कृपा करके फरमाइये । (३) प्र०-हे गौतम! इस संसार भर में हजारों दुश्मन हैं उन्हीं दुश्मनों (वैरी) के अन्दर आप निवास किस प्रकार से करते हैं और वह दुश्मन आपके सन्मुख युद्ध करने को बराबर पाते हैं और हमला भी करते हैं उन दुश्मनों को कैसे पराजय करते हो ? उ.-हे भगवान जो दुश्मन हैं वह सर्व मेरे जाने हुये हैं । इन्हीं दुश्मनों का एक नायक है उसको पहिले से ही मैंने अपने कब्जे में कर रखा है और उसी नायक के चार उमराव हैं वह तो हमेश के लिये मेरे दास ही बन रहे हैं और नायक के राज्य में पाँच पंच हैं । वह मेरे आज्ञाकारी ही हैं । इन्हीं दुश्मनों में यह +४+५=१० मुख्य योद्धा हैं । इन्हीं को अपने कब्जे में कर लेने से पीछे बिचारे दूसरे दुश्मनोंकी तो सामर्थ ही क्या है ? अतः मैं इन्हीं दुश्मनों का पराजय करता हुआ सुखपूर्वक विचरता हूँ। तर्क-हे गौतम ! आपके दुश्मन एक नायक, चार उमराव, पांच पंच कौन हैं और किसको पराजय किया है ? समाधान हे भगवान् ! दुश्मनों का नायक एक 'मन' है, यह आत्मा के निज गुण को हरण करता wwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwww Jain Education International For Private & Personal Use Only www.j३orary.org
SR No.003211
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages980
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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